उपन्यास : तर्पण
उपन्यासकार : शिवमूर्ति
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली ।
मूल्य : 150/-
पृष्ठ संख्या : 114
आवरण चित्र : डॉ लाल रत्नाकर
तर्पण भारतीय समाज में सहस्त्राब्दियों से शोषित, दलित और उत्पीड़ित
समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है । इसमें एक तरफ कई कई हजार वर्षों के दुख
अभाव और अत्याचार का सनातन यथार्थ है तो दूसरी तरफ दलित चेतना के स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति
की वास्तविकता ।
इस नई वास्तविकता के मानदंड भी नए हैं, पैंतरे भी नए हैं
और अवक्षेपण भी नए हैं।
तर्पण कथा :
मुख्य कथा वर्ण-संघर्ष-सवर्ण बनाम दलित की
है जिसका आरंभ दो परिवारों- धरमू पंडित बनाम पियारे चमार के संघर्ष से होता है ।
गाँव के अधिसंख्यक दलित पियारे सहित सवर्णों के खेतों में मजदूरी करते रहे हैं और
पिछले दिनों मजदूरी बढ़ाने का सफल आंदोलन कर चुके हैं। अतः वर्ग-संघर्ष मुख्य कथा
की पृष्ठभूमि में है । उपन्यास के पात्रों के व्यवहार में इसकी सफलता- असफलता की
प्रतिक्रिया भी झलकती है ।
पियारे की विवाहित बेटी रजपतिया घात लगाए
बैठे धरमू पंडित के बेटे चंदर द्वारा मटर के खेत में पकड़ ली जाती है- आरोप मटर की
चोरी का है- नीयत बदमाशी की है जिसके बारे में आगे चलकर पंडिताइन का कहना है कि यह
नीयत वंशानुगत है और जिसके बारे में यह स्थापित है कि ‘चंदरवा का चरित्तर
तो अब तक दो तीन बच्चों की माँ बन चुकी गाँव की लड़कियाँ तब से बखानती आ रही हैं
जब वह इन बातों का मतलब भी ठीक से समझने लायक नहीं हुई थी।’ पकड़ी गई रजपतिया
के प्रतिकार से प्रथमतः चंदर का अहं आहत होता है ‘नान्हों की छोकरियाँ’ खबरदार बोलना कब
से सीख गई ? फिर
परेमा की माई, मिस्त्री
बहू व रजपतिया की संयुक्त शक्ति से भयभीत हो भाग छूटता चंदर पुरूषोत्तम अग्रवाल की
‘बिल्ली
और कबूतर’ कविता
की याद दिलाता है जिसमें कबूतर की खुली आँख की तेज चमक से बिल्ली घबरा जाती है, चकरा जाती है ।
यह मामूली सी और लगभग स्वीकार्य समझी जाने
वाली घटना दलितों की अब तक की संचित पीड़ा को विस्फोटक क्रोध में बदल देती है । दलित
सामाजिक कार्यकर्ता भाईजी की अगुवाई में दलित युवा पीढ़ी रजपतिया के साथ हुई
छेड़छाड़ को बलात्कार की शिकायत में तब्दील कर थाने में दर्ज कराने पर आमादा है
क्योंकि भाईजी के मुताबिक ‘366
बटा 511
दर्ज हुई तो इन्क्वायरी अफसर उसे गिराकर 354 पर ले आएगा अतः
चंदर को सजा दिलाने के लिए 376
लगाना जरूरी है इसलिए स्ट्रेटेजी बनाना होगा, लिखाना होगा-रेप
हुआ है।’
पियारे की असहमति; जो कि असत्य भाषण
के संभावित पाय जन्मी है और रजपतिया,
रजपतिया की माँ-यानी स्त्री की राय जाने बगैर
बलात्कार की शिकायत दर्ज होती है- इस संदर्भ में आगे चलकर हरिजन एक्ट का इस्तेमाल
किया जाता है ।
धरमू पंडित के पास पैसा है, ऊँचे रसूख हैं, दलित उभार से आहत
अहं है तो दलित समुदाय के पास चंदे का,
दलित एम.एल.ए. का, रजपतिया से जबरन दिलवाए गए झूठे बयान का
सहारा है । पंडित-पुत्र चंदर महाशय रिश्वत के बल पर पहली बार थाने से छूटकर घर आते
हैं तो विजय-दर्प में कंधे पर बंदूक टांगकर चमरौटी के तीन चक्कर लगाते हैं ।
भाईजी की कोशिशों से चंदर की फिर गिरफ्तारी
होती है तो उसके डेढ़ महीने के जेल-वास के उपलक्ष्य में चमरौटी में सूअर कटता है, दारू चलती है-
झमाझम नाच होता है जिसके चलते रजपतिया के भाई मुन्ना पर हजार रूपये का कर्ज हो
जाता है । पंडित पार्टी महँगा वकील खड़ा करती है तो दलित पार्टी भी पीछे नहीं ।
कुल मिलाकर दोनों तरफ नीति नहीं-सिर्फ रणनीति है ।
चूंकि बलात्कार की रिपोर्ट झूठी है और सी.ओ.
ठाकुर हैं, चंदर
की माता श्री पंडिताइन द्वारा प्रति पचास रू. खरीदी गई निजी हलवाहिन लवंगलता व
उसकी बटन कौरह के झूठे बयान हैं;
अतः अन्ततः चंदर बरी हो जाता है पर प्रतिशोध भावना
से बरी नहीं है सो बंदूक से हवाई फायर करने,
भाईजी को डराने के इरादे से निकलता है पर बदले में
मुन्ना के हाथों नाक कटा बैठता है ।
इस घटना का न कोई गवाह है न कोई नामजद आरोपी, शक जरूर मुन्ना
पर है । ऐसे में मुन्ना का पिता पियारे स्वयं को आरोपी के रूप में अपने वकील को से
यह कहकर गिरफ्तार करवाता है कि ‘यह
सही है कि मैंने नहीं मारा पर मन ही मन न जाने कितनी बार मारा है । अब जब बिना
मारे ही ‘जस’ लेने का मौका मिल
रहा है तो आप कहते हैं इंकार कर दूँ ?
मेरी बात:
‘तर्पण’ मात्र 114 पेज का उपन्यास है लेकिन सदियों का दर्द अपने अंदर समेटे और आने वाली सदियों का डर अपने अंदर समेटे हुए।
जहां एक तरफ राजपति, पियारे और विक्रम का व्यवस्था के प्रति मानसिक और शारीरिक विद्रोह है तो दूसरी तरफ धरमू पंडित, चंदर की सामाजिक श्रेष्ठता को बरकरार रखने की जद्दोजहद का भी बेबाकी से चित्रण है।
इनके बीच में भाई जी जैसे चरित्र जो पुरानी व्वयस्था को उखाड़ कर एक नई व्यवस्था स्थापित करने को बेकरार हैं जिसमें खुद को प्रासंगिक साबित किया जा सके।
शिव मूर्ति जी ने शोषित और शोषक के बदलते समीकरणों का तटस्थ और ईमानदारी से चित्रण किया है ।
हालांकि ‘तर्पण’ शिवमूर्ति का दूसरा ही उपन्यास है लेकिन इतना कम लिखकर भी उन्हें जबर्दस्त ख्याति मिली है जो किसी विरले लेखक के नसीब में होती है ।
तर्पण में नब्बे के दशक के उपरान्त ग्रामीण जनजीवन-स्थितियों के सहारे हमारे समाज के ज्वलंत सच को रेखांकित किया गया है। इस उपन्यास में सदियों से पोषित हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से जुड़ी मानसिकता के विरोधी स्वरों के तानों-बानों से पूरा औपन्यासिक ढ़ांचा खड़ा किया गया है।
शिवमूर्ति का तीसरा उपन्यास ‘‘आखीरी छलांग’’ किसान जवीन के त्रासदी को जिस मार्मिकता से उभारती है, वो पाठक को किसान जीवन के दर्द से सीधे लेजाकर जोड़ देती है।
शिवमूर्ति का प्रत्येक उपन्यास अपने समय-समाज से संवाद करता हुआ अपने समकाल को रचता है तथा अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करता है। शिवमूर्ति का कथासाहित्य अपने औपन्यासिक ढ़ांचे में हमारे समय-समाज के परस्पर अंतर्विरोधी स्वरों को उसकी संश्लिष्टता में रखते हुए हमारे समय-समाज के करीब लाता है।
‘तर्पण’ अपने समय-समाज के संकटों-जातिवाद, धार्मिक, कट्टरतावाद, संप्रदायवाद, वर्चस्ववाद आदि का प्रत्याखान करता हुआ हमें यह सोचने को विवश करता है कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है। यही इन उपन्यासों की सार्थकता भी है ।