उपन्यास : मृत्युंजय
लेखक : शिवाजी सावन्त
समीक्षा : डॉ वसुधा मिश्रा
हाथ कांपते है ,दिल की धमक कुछ तेज सी होने लगती है जब कलम उठाने की कोशिश करती हूं,ऐसे महाशास्त्र के विषय में कुछ भी लिखने के लिए ...
पर कोशिश तो करनी ही होगी क्योंकि ऐसे अधूरा रह जायेगा मेरा आभार प्रकट करना उस महान कलमकार को जिसने अपनी लेखनी से अमृत बिखेर दिया ,हम सभी की जिंदगी में ...
ये उपन्यास मूलतः मराठी भाषा में लिखा , शिवाजी सावंत ने..
14 वर्ष की कोमल किशोर अवस्था में जब बालक खेलकूद में अपना समय व्यतीत करते हैं , उस वक्त उन्होंने कृष्ण का पात्र निभाते हुए एक नाटक खेला,पर जिया पूरी तरह से "कर्ण" के
पात्र को ,घर कर गया कर्ण का चरित्र उनके मन मस्तिष्क पर , इतनी गहरी नींव पड़ी उसकी कि उसी नींव पर एक विशाल ,महान इमारत खड़ी की उन्होंने जिसको आज तक कोई हिला नही पाया ...
पहले एक नाटक लिखने की योजना बनाई उन्होंने ,पर ऐसा लगा कि न्याय नहीं कर पायेंगे,इतने विस्तृत व्यक्तित्व का ,चित्र नही खींच पाए वो पूरी तरह से .....
उन्हें महाभारत का ज्ञान था ही, साथ ही दिनकर की " रश्मिरथी " और केदारनाथ मिश्र की " प्रभात " ने पूरा महाग्रंथ लिखने के लिए प्रेरित किया ...
1967 में मराठी में इसका प्रथम संस्करण निकला , लोगों में एक बिजली सी दौड़ गई ,एक लहर ऐसे उठी की मानो आकाश छू लेगी।
शिवाजी सावंत ने कर्ण का चरित्र इतना ओजस्वी ,इतना औदार्यपूर्ण ,इतना महावीर , दीनरक्षक और दिव्य प्रस्तुत किया है जिसके सामने महाभारत के अन्य पात्र ऐसे प्रतीत होने लगे जैसे सूर्य अपनी चमक से सारे अन्य प्रकाश धूमिल होते नज़र आने लगते हैं ।
इस उपन्यास की भाषा शैली , पृष्ठभूमि पर इतनी सूक्ष्म पकड़, चारित्रिक संकल्पना इतनी सधी हुई जैसे कोई तीर पारंगत धनुर्धर अपने तूणीर से छोड़ता है और वो सीधे लक्ष्य पर लगता हैं ।
ऐसा महाकाव्य रचा गया कि जिसके जैसा मार्मिक और सत्याभिवक्ति करने वाला अन्य कुछ इसके सामने नही टिकता ।
इस उपन्यास में कर्ण,कुंती ,दुर्योधन , वृषाली( कर्ण की पत्नी ) ,शोण, और कृष्ण के आत्मकथ्यों के माध्यम से घटनाओं को वर्णित किया गया है ।
कर्ण की आत्मकथा जैसे शुरू होता है ये उपन्यास जहां कर्ण की हर संभव यह कोशिश है कि वह अपने जीवन के तरकश को अच्छी तरह खोल कर दिखा सके,जिसमे अनेक आकारों की विविध घटनाओं के बाण ठसाठस भरे हुए हैं...
वो अपने व्यक्तित्व के हर आयाम को सबके सामने ऐसे रख देना चाहता है, कोई छुपाव - दुराव नही हो जिसमें ..
उसके मन की व्यथा उससे कहती है कि "कर्ण! कहो ...अपनी जीवन - कथा ,ऐसे कि सब समझ सके कि तेरा जीवन चीथड़े के समान नहीं था,वरन वह तो गोटा लगा हुआ एक अतलसी राजवस्त्र था,परिस्थितियों के निर्दयी बाणों से उसके सहस्र चीथड़े हो गए थे,और जिसके हाथ में पड़े,उसने मनमाने ढंग से उनका प्रचार किया ...."
कथा की शुरुआत चंपानगरी से होती है जहां कर्ण का बचपन अपने पालक माता पिता ,राधा और अधिरथ के पुत्र के रूप में बीत रहा था ,उसका एक छोटा भाई भी था जिसका नाम शोण था,उपन्यास में कर्ण के बचपन का काफी विस्तार से वर्णन किया गया है ,उसके बचपन की हर छोटी बड़ी घटना को बड़े ही मार्मिक चित्रण से सजाया है ,पढ़ने पर हम उसको स्वयं अनुभव करते हैं कि कर्ण का बालपन किन किन असमंजस से भरे प्रश्नों की अनबूझ पहेली जैसा रहा है , जिनका जवाब न उसके पास था न ही कोई ऐसा था जिससे वो अपने सवालों के उत्तर पा सके...
आगे उसका शास्त्र और शस्त्र विद्या सीखने के लिए हस्तिनापुर जाना ,वहां सभी विषयों में,विद्याओं में दक्ष, सर्वश्रेष्ठ होने के बावजूद भी उसकी जाति के कारण उसको उचित सम्मान और स्थान न मिलना बल्कि उपेक्षा,घृणा और अपमान से हर कदम उसका सामना होना ,
चाहे वो द्रोणाचार्य के द्वारा मिला हुआ धिक्कार हो या द्रौपदी के द्वारा अपने स्वयंवर में मिला हुआ तिरस्कार हो ,या माता कुंती द्वारा पैदा होते ही त्याग दिए जाने को असह्य पीड़ा हो ,या भीष्म पितामह द्वारा उसको कभी भी एक सम्मानित नागरिक तक न माने जाने का आत्मिक संताप हो .....
कर्ण का जीवन इन सभी दंशो के साथ भी ,अपने ऊर्जित ,गर्वित और पौरुष से भरे हुए मस्तक के साथ सदैव ऊंचे रहने में ही प्रयत्नशील रहा ..
जब भरी युद्धशाला में द्रोण के द्वारा अपमानित किए जाने पर ,दुर्योधन सामने आता है ,मैत्री भाव लेकर ( भले ही उसका वह प्रस्ताव ,स्वार्थ पूर्ति के लिए ही था) और कर्ण को "अंगराज" की उपाधि से अलंकृत कर सम्मान के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा देता है , उस उपकार का बदला कर्ण अपनी मृत्यु तक चुकाता है ,कहां होगा ऐसा साक्षात उदाहरण मैत्री का , कर्ण के जीवन के सिवा ....
अनेकों अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो आपकी आत्मा को झकझोर देते हैं,कचोटते है कर्ण के कष्ट हमें भी ,आखिर कर्ण के साथ ऐसा क्यों हुआ ????इतनी परीक्षा उसकी ,हर कदम पर ,हर बार जब वो जीत के एकदम निकट होता है ,उससे छीन लिया जाता है जीत का परचम और थमा दिया जाता है ,निकृष्ट जाति के होने का एक परिचय पत्र..........
कर्ण का हृदय सहमता नही ,डरता नहीं ,द्रवित होता है और चाहता है अपने हर प्रश्न का जवाब ...उठ खड़ा होता है वो हर आगे वाली चुनौती के लिए अपने पास सुरक्षित हर विराट शक्ति के साथ ,दोगुनी ,चार गुनी क्षमताओं को साथ लेकर ..
कर्ण के विशाल व्यक्तित्व का एक उदाहरण मिलता है जब श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध के निकट आने के समय राजकाज और शिष्टता की पूंजी साथ लेकर हस्तिनापुर जाते हैं और समझौते का प्रस्ताव रखते हैं,दुर्योधन उसको ठुकरा देता है और युद्ध की घोषणा हो जाती है, उस वक्त हस्तिनापुर से वापस जाते समय मात्र कर्ण ही ऐसा व्यक्ति होता है जिसका हाथ पकड़ कर कृष्ण अपने रथ में चढ़ा लेते हैं,उसको उसके जन्म का सम्पूर्ण रहस्य बताते हैं, उस चिरप्रतीक्षित सत्य को जानने के बाद भी ,उसका अपने वचन और स्नेहभाव दुर्योधन के लिए ही रखते हुए कौरवों का साथ देने के रहते कृष्ण का प्रस्ताव अस्वीकार करता है .....
उपन्यास ओत प्रोत है ऐसे हजारों, हृदय को प्रकंपित कर देने वाले प्रसंगों से ,उनको स्वयं पढ़कर उनकी अनुभूति करने का आनंद अवर्णनीय है ...
मेरी आंखों में आंसुओ की बूंदे लाने वाले प्रसंगों में से एक है - अर्घ्यदान के समय गंगातट पर "कर्ण - कुंती की भेंट ,इतना हृदयविदारक संस्मरण है वो ,शायद विश्व में माता - पुत्र के रिश्ते का इतना गहरा और बेमिसाल वर्णन कहीं और नही मिलेगा , अपने उस अस्तित्व के सत्य को जानने के लिए कर्ण को लगभग 75 साल घुटन,अपमान और घृणा झेलते हुए बिताने पड़े ,
वो प्रसंग आपका दिल जरूर द्रवित करेगा .....एक एक शब्द आत्मसात करने वाला है ।
कर्ण के परमदानी होने का परिचय देता हुआ अंश जहां वो इंद्र को अपने कवच और कुंडल सहर्ष उतार कर दे देता है , या परशुराम जी द्वारा शापित होकर ऐन वक्त पर ब्रह्मास्त्र का उपयोग न कर पाने का परम दुख सहन करके भी पथभ्रष्ट न होना ,अपने वचन पर टिके रहकर अपने सर्वस्व का बलिदान दे देना ,सिर्फ कर्ण का पराक्रम ही कर दिखा सकता था ....
सारा कुछ न लिख पाने की कुछ मेरी मजबूरी है ,एक तो इस महाकाव्य रूपी सागर को मैं अपनी लेखनी की गागर में भरने की सिर्फ एक कोशिश मात्र कर सकती हूं ,जो मैने की है ....दूसरा ये कि मैं चाहती हूं ....दिल से .. कि यहां सभी अच्छा पढ़ने वाले लोग इस महाग्रंथ को अपने जीवन में अवश्य ,अवश्य पढ़ें ,..कई बार पढ़ सके तो कई बार वरना एक बार तो अवश्य ही पढ़ें ...और स्वयं साहित्य सरिता में गोते लगाएं और साक्षी बने इस महान कलाकृति के .....
पढ़कर परिचित होइए एक अडिग, अशरण, अंगराज दिग्विजयी,दानवीर, राधेय,कौंतेय , सूर्यपुत्र,सही अर्थों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ पांडव ,कर्ण से ,जिसको एक सीमित क्षेत्र में बांधना अति दुरूह कार्य है।
"दुस्साहस था कि वह पहुंचा ,राजरंगशाला में ।
चमके जैसा कमल चमकता ,कनक किरणमाला में ।।"
कर्ण के सुवर्ण का वर्णन खुद महसूस कीजिए।
निवेदन है आप सबसे।।🙏🙏🙏
नाम - मृत्युंजय
लेखक - शिवाजी सावंत (मूलतः मराठी में)
अनुवाद - ओम शिवराज ( अनुपम अनुवाद - कोटिशः
नमन )
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ
ISBN- 9789326350617
मूल्य - 399रुपए
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