Monday, February 21, 2022

सुरेश वशिष्ठ : रक्तबीज

 रक्तबीज, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सुरेश वशिष्ठ जी का कहानी संग्रह है। इस कथा संग्रह में 51 कहानियां हैं और अंत में हरियाणा के प्रमुख साहित्यकार श्री राजकुमार निजात की समीक्षा है।

रक्तबीज-सुरेश वशिष्ठ

रक्तबीज की कहानियों में भारत, हिंदुस्तान और इंडिया के द्वंद्व, संदेह और सवाल अत्यंत मुखर हो कर उपस्थित हैं। कहानियों के पात्र हमारे आसपास के परिवेश से सामने आते हैं और अपनी कहानी हमें सुनाते हैं और फिर मस्तिष्क और हृदय के कोने में बैठ जाते हैं । फिर वे हमारी मनःस्थिति को भापते हुए कई देर तक विचरते रहते हैं।

सभी कहानियों में मन और मस्तिष्क को उद्वेलित करने की पर्याप्त क्षमता है। सुरेश वशिष्ठ जी के कथा परिवेश में भारतीय समाज के सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक संक्रमण काल के प्रश्न सजीव हो उठते हैं। 'संस्कार' कहानी जहां पर एक विधुर की मनोदशा का वर्णन करती है वहीं पर 'सलीका' जिंदगी को समझौते की डगर पर डगमगाते हुए दिखाती है। 'रक्तबीज' जैसी कहानियों में धार्मिक मतान्धता को उसके नग्न स्वरूप में डॉ सुरेश वशिष्ठ पूरी तरह से सफल रहे हैं।

2021 में गणपति बुक सेंटर, गाजियाबाद से प्रकाशित इस संग्रह में 112 पृष्ठ हैं और विक्रय मूल्य 80 रुपये है । 

रक्तबीज


Wednesday, February 16, 2022

तर्पण : शिवमूर्ति

उपन्यास : तर्पण

उपन्यासकार : शिवमूर्ति

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली ।

मूल्य : 150/-

पृष्ठ संख्या : 114

आवरण चित्र : डॉ लाल रत्नाकर 

तर्पण : शिवमूर्ति


 आवरण पृष्ठ से :

तर्पण भारतीय समाज में सहस्त्राब्दियों से शोषित, दलित और उत्पीड़ित समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है । इसमें एक तरफ कई कई हजार वर्षों के दुख अभाव और अत्याचार का सनातन यथार्थ है तो दूसरी तरफ दलित चेतना के स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति की वास्तविकता ।

इस नई वास्तविकता के मानदंड भी नए हैं, पैंतरे भी नए हैं और अवक्षेपण भी नए हैं।

तर्पण कथा :

मुख्य कथा वर्ण-संघर्ष-सवर्ण बनाम दलित की है जिसका आरंभ दो परिवारों- धरमू पंडित बनाम पियारे चमार के संघर्ष से होता है । गाँव के अधिसंख्यक दलित पियारे सहित सवर्णों के खेतों में मजदूरी करते रहे हैं और पिछले दिनों मजदूरी बढ़ाने का सफल आंदोलन कर चुके हैं। अतः वर्ग-संघर्ष मुख्य कथा की पृष्ठभूमि में है । उपन्यास के पात्रों के व्यवहार में इसकी सफलता- असफलता की प्रतिक्रिया भी झलकती है ।

पियारे की विवाहित बेटी रजपतिया घात लगाए बैठे धरमू पंडित के बेटे चंदर द्वारा मटर के खेत में पकड़ ली जाती है- आरोप मटर की चोरी का है- नीयत बदमाशी की है जिसके बारे में आगे चलकर पंडिताइन का कहना है कि यह नीयत वंशानुगत है और जिसके बारे में यह स्थापित है कि चंदरवा का चरित्तर तो अब तक दो तीन बच्चों की माँ बन चुकी गाँव की लड़कियाँ तब से बखानती आ रही हैं जब वह इन बातों का मतलब भी ठीक से समझने लायक नहीं हुई थी।पकड़ी गई रजपतिया के प्रतिकार से प्रथमतः चंदर का अहं आहत होता है नान्हों की छोकरियाँखबरदार बोलना कब से सीख गई ? फिर परेमा की माई, मिस्त्री बहू व रजपतिया की संयुक्त शक्ति से भयभीत हो भाग छूटता चंदर पुरूषोत्तम अग्रवाल की बिल्ली और कबूतरकविता की याद दिलाता है जिसमें कबूतर की खुली आँख की तेज चमक से बिल्ली घबरा जाती है, चकरा जाती है । 

यह मामूली सी और लगभग स्वीकार्य समझी जाने वाली घटना दलितों की अब तक की संचित पीड़ा को विस्फोटक क्रोध में बदल देती है । दलित सामाजिक कार्यकर्ता भाईजी की अगुवाई में दलित युवा पीढ़ी रजपतिया के साथ हुई छेड़छाड़ को बलात्कार की शिकायत में तब्दील कर थाने में दर्ज कराने पर आमादा है क्योंकि भाईजी के मुताबिक ‘366 बटा 511 दर्ज हुई तो इन्क्वायरी अफसर उसे गिराकर 354 पर ले आएगा अतः चंदर को सजा दिलाने के लिए 376 लगाना जरूरी है इसलिए स्ट्रेटेजी बनाना होगा, लिखाना होगा-रेप हुआ है।

पियारे की असहमति; जो कि असत्य भाषण के संभावित पाय जन्मी है और रजपतिया, रजपतिया की माँ-यानी स्त्री की राय जाने बगैर बलात्कार की शिकायत दर्ज होती है- इस संदर्भ में आगे चलकर हरिजन एक्ट का इस्तेमाल किया जाता है ।

धरमू पंडित के पास पैसा है, ऊँचे रसूख हैं, दलित उभार से आहत अहं है तो दलित समुदाय के पास चंदे का, दलित एम.एल.ए. का, रजपतिया से जबरन दिलवाए गए झूठे बयान का सहारा है । पंडित-पुत्र चंदर महाशय रिश्वत के बल पर पहली बार थाने से छूटकर घर आते हैं तो विजय-दर्प में कंधे पर बंदूक टांगकर चमरौटी के तीन चक्कर लगाते हैं ।

भाईजी की कोशिशों से चंदर की फिर गिरफ्तारी होती है तो उसके डेढ़ महीने के जेल-वास के उपलक्ष्य में चमरौटी में सूअर कटता है, दारू चलती है- झमाझम नाच होता है जिसके चलते रजपतिया के भाई मुन्ना पर हजार रूपये का कर्ज हो जाता है । पंडित पार्टी महँगा वकील खड़ा करती है तो दलित पार्टी भी पीछे नहीं । कुल मिलाकर दोनों तरफ नीति नहीं-सिर्फ रणनीति है ।

चूंकि बलात्कार की रिपोर्ट झूठी है और सी.ओ. ठाकुर हैं, चंदर की माता श्री पंडिताइन द्वारा प्रति पचास रू. खरीदी गई निजी हलवाहिन लवंगलता व उसकी बटन कौरह के झूठे बयान हैं; अतः अन्ततः चंदर बरी हो जाता है पर प्रतिशोध भावना से बरी नहीं है सो बंदूक से हवाई फायर करने, भाईजी को डराने के इरादे से निकलता है पर बदले में मुन्ना के हाथों नाक कटा बैठता है ।

इस घटना का न कोई गवाह है न कोई नामजद आरोपी, शक जरूर मुन्ना पर है । ऐसे में मुन्ना का पिता पियारे स्वयं को आरोपी के रूप में अपने वकील को से यह कहकर गिरफ्तार करवाता है कि यह सही है कि मैंने नहीं मारा पर मन ही मन न जाने कितनी बार मारा है । अब जब बिना मारे ही जसलेने का मौका मिल रहा है तो आप कहते हैं इंकार कर दूँ ?

मेरी बात:  

तर्पण मात्र 114 पेज का उपन्यास है लेकिन सदियों का दर्द अपने अंदर समेटे और आने वाली सदियों का डर अपने अंदर समेटे हुए। 

जहां एक तरफ राजपति, पियारे और विक्रम का व्यवस्था के प्रति मानसिक और शारीरिक विद्रोह है तो दूसरी तरफ धरमू पंडित, चंदर की सामाजिक श्रेष्ठता को बरकरार रखने की जद्दोजहद का भी बेबाकी से चित्रण है। 

इनके बीच में भाई जी जैसे चरित्र जो पुरानी व्वयस्था को उखाड़ कर एक नई व्यवस्था स्थापित करने को बेकरार हैं जिसमें खुद को प्रासंगिक साबित किया जा सके। 

शिव मूर्ति जी ने शोषित और शोषक के बदलते समीकरणों का तटस्थ और ईमानदारी से  चित्रण किया है ।

हालांकि तर्पणशिवमूर्ति का दूसरा ही उपन्यास है लेकिन इतना कम लिखकर भी उन्हें जबर्दस्त ख्याति मिली है जो किसी विरले लेखक के नसीब में होती है

तर्पण में नब्बे के दशक के उपरान्त ग्रामीण जनजीवन-स्थितियों के सहारे हमारे समाज के ज्वलंत सच को रेखांकित किया गया है। इस उपन्यास में सदियों से पोषित हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से जुड़ी मानसिकता के विरोधी स्वरों के तानों-बानों से पूरा औपन्यासिक ढ़ांचा खड़ा किया गया है।

शिवमूर्ति का तीसरा उपन्यास ‘‘आखीरी छलांग’’ किसान जवीन के त्रासदी को जिस मार्मिकता से उभारती है, वो पाठक को किसान जीवन के दर्द से सीधे लेजाकर जोड़ देती है। 

शिवमूर्ति का प्रत्येक उपन्यास अपने समय-समाज से संवाद करता हुआ अपने समकाल को रचता है तथा अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करता है। शिवमूर्ति का कथासाहित्य अपने औपन्यासिक ढ़ांचे में हमारे समय-समाज के परस्पर अंतर्विरोधी स्वरों को उसकी संश्लिष्टता में रखते हुए हमारे समय-समाज के करीब लाता है।

तर्पण अपने समय-समाज के संकटों-जातिवाद, धार्मिक, कट्टरतावाद, संप्रदायवाद, वर्चस्ववाद आदि का प्रत्याखान करता हुआ हमें यह सोचने को विवश करता है कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है। यही इन उपन्यासों की सार्थकता भी है ।

 

 


Monday, February 14, 2022

प्रेत लेखन : योगेश मित्तल

 
पुस्तक : प्रेत लेखन (हिन्दी पल्प फिक्शन में प्रेत लेखन का नंगा सच)
लेखक : योगेश मित्तल
प्रकाशक : नीलम जासूस कार्यालय, रोहिणी, दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 268
MRP : 275/-
Amazon link :  प्रेत लेखन

pret lekhan
प्रेत लेखन

 हिन्दी पल्प फिक्शन में प्रेत लेखन का नंगा सच या संक्षेप में प्रेत लेखन श्री योगेश मित्तल द्वारा लिखी गई अपने आप में एक अनूठी किताब है जिसे नीलम जासूस कार्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया है।
प्रेत लेखन का शीर्षक एक कौतूहल जगाता है कि किताब में आखिर मिलेगा क्या ? किसी प्रेत द्वारा किया लेखन ? जी नहीं, ये किताब घोस्ट राइटिंग से संबंध रखती हुई किताब है ।
आप समझते ही होंगे कि घोस्ट राइटिंग या प्रेत लेखन किसी स्थापित लेखक के नाम से या किसी नकली नाम के पीछे रहकर किया गया लेखन है जिसमे असली लेखक की पहचान पढ़ने वालों के सामने नहीं आ पाती है । ऐसे लेखक को घोस्ट रायटर या प्रेत लेखक कहते हैं ।
योगेश मित्तल जी ने अपनी ज़िंदगी के गुजरे दिनों को याद करते हुए, आत्मकथात्मक अंदाज में, 1963 के आसपास का समय अपनी पुस्तक में शुरू से लिया है और अपने लेखकीय जीवन की यादों को एक सूत्र में पिरोया है ।

योगेश मित्तल 


जैसे जैसे हम इस किताब को पढ़ते हैं तो हैरान होते चले जाते हैं कि प्रेत लेखन की सोच या लालच किस कदर उस वक्त के प्रकाशकों और लेखकों पर हावी हो गई थी कि हर कोई इसमें कूदना चाहता था ।
जहां तक मैं समझ पाया हूँ कि हिन्द पॉकेट बुक्स से कर्नल रंजीत के नाम से उपन्यास निकले और उनकी सफलता ने सभी प्रकाशकों को ध्यान खीचा ।  जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा और श्री वेद प्रकाश कम्बोज के नाम से नकली लेखन शायद उस वक्त उनकी प्रसिद्धि को दर्शाता है । लेकिन इस प्रेत लेखन का खामियाजा आखिरकार उन्हें भी भुगतना पड़ा ।
योगेश मित्तल जी का रुझान इस प्रेत लेखन में क्यों था या वो इसे कैसे स्वीकार कर पाये – इस बात का जवाब हमें उन्हीं के जुबानी मिलता है – “मैं खामोश रह गया तथा यही सोचा – सामाजिक और जासूसी उपन्यासों में अगर नाम नहीं छपता, न छपे। पैसे तो मिल रहें हैं । नाम के लिए कभी कुछ साहित्यिक लिखेंगे।
इस किताब की नीव या शुरुआत फ़ेसबुक पर राजभारती के फ़ैन पेज पर साझा किए गए संस्मरणों से हुई थी जो लोगों को बहुत पसंद आए थे । जिसे मैंने भी पढ़ा था । उसी वक्त इन संस्मरणों को एक किताब के रूप छापने की मांग शुरू हो गई थी जिसे आखिरकार नीलम जासूस कार्यालय ने साकार किया ।
पल्प फिक्शन के सुनहरी दौर में रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर बुक-स्टाल पर हमने कहीं न कहीं मनोज, सूरज, धीरज, रानु, राजवंश, कर्नल रंजीत या मेजर बलवंत के उपन्यास जरूर देखें होंगे । ये सिर्फ काल्पनिक नाम थे और इनके पीछे थे – मख़मूर जालंधरी, फारुख अर्गली, आरिफ़ म्हारवी, केवल कृशन कालिया, हादी हसन और योगेश मित्तल ।
पूरी किताब उस वक्त के रोचक किस्सों से भरी हुई है । जो लोग उस दौर से पाठक के तौर पर गुजरे हैं, उनके लिए उस दौर के लेखन जगत की बातों को जानना एक अनूठा अनुभव होगा, जिसके बारे में यहाँ वहाँ से बात उठती रहती थी । योगेश मित्तल जी ने लगभग पूरा सच पाठकों के सामने रखा है । उनकी याददाश्त का लोहा मानना पड़ेगा जिसके दम पर उन्होंने प्रत्येक दृश्य पाठकों के सामने साकार कर दिया है ।
पुस्तक की साज-सज्जा काबिले तारीफ है । आवरण पृष्ठ का डिजाइन नीलम जासूस कार्यालय का सबल पक्ष रहा है जिसमें पूरे नंबर दिये जा सकते हैं । पेपर क्वालिटी और बाइंडिंग उम्दा दर्जे की है जो पाठकों को आकर्षित करती है ।
पुस्तक की शुरुआत में लगभग पचास पेज में भूमिका/ प्रशस्ति लेखन है जिसे कम किया जा सकता था । यही पेज योगेश मित्तल जी को दिये जा सकते थे जिसमें वे अपनी यादों को थोड़ा और विस्तार दे सकते थे जिससे पढ़ने वालों को शायद ज्यादा लुत्फ आता । अंत में ऐसा लगता है जैसे किताब को जल्दी समेट दिया गया हो ।
इस सबके बावजूद प्रेत लेखन एक संग्रहणीय पुस्तक है जिसे लोकप्रिय साहित्य को चाहने वाला अपने पास जरूर रखना चाहेगा ।
इस पुस्तक के बाद योगेश मित्तल जी ने इसी पुस्तक में आगे भी गुफ्तगू जारी रखने का जिक्र किया है जिसमें कई और लेखकों के बारे में संस्मरण आने है । यह सब भविष्य के गर्भ में है लेकिन पाठकों को बेसब्री से इंतजार रहेगा और मुझे भी ।  
© Jitender Nath



      
 

Friday, February 4, 2022

मृत्युंजय - शिवाजी सावन्त (समीक्षा - डॉ वसुधा मिश्रा)

उपन्यास : मृत्युंजय
लेखक : शिवाजी सावन्त
समीक्षा : डॉ वसुधा मिश्रा

हाथ कांपते है ,दिल की धमक कुछ तेज सी होने लगती है जब कलम उठाने की कोशिश करती हूं,ऐसे महाशास्त्र के विषय में कुछ भी लिखने के लिए ...
   पर कोशिश तो करनी ही होगी क्योंकि ऐसे अधूरा रह जायेगा मेरा आभार प्रकट करना उस महान कलमकार को जिसने अपनी लेखनी से अमृत बिखेर दिया ,हम सभी की जिंदगी में ...
ये उपन्यास मूलतः मराठी भाषा में लिखा , शिवाजी सावंत ने..
14 वर्ष की कोमल  किशोर अवस्था में जब बालक खेलकूद में अपना समय व्यतीत करते हैं , उस वक्त उन्होंने कृष्ण का पात्र निभाते हुए एक नाटक खेला,पर जिया पूरी तरह से "कर्ण" के
पात्र को ,घर कर गया कर्ण का चरित्र उनके मन मस्तिष्क पर , इतनी गहरी नींव पड़ी उसकी कि उसी नींव पर एक विशाल ,महान इमारत खड़ी की उन्होंने जिसको आज तक कोई हिला नही पाया ...
पहले एक नाटक लिखने की योजना बनाई उन्होंने ,पर ऐसा लगा कि न्याय नहीं कर पायेंगे,इतने  विस्तृत व्यक्तित्व का ,चित्र नही खींच पाए वो पूरी तरह से .....
उन्हें महाभारत का ज्ञान था ही, साथ  ही दिनकर की " रश्मिरथी " और केदारनाथ मिश्र की " प्रभात " ने पूरा महाग्रंथ लिखने के लिए प्रेरित किया ...
1967 में मराठी में इसका प्रथम संस्करण निकला , लोगों में एक बिजली सी दौड़ गई ,एक लहर ऐसे उठी की मानो आकाश छू लेगी। 
शिवाजी सावंत ने कर्ण का चरित्र इतना ओजस्वी ,इतना औदार्यपूर्ण ,इतना महावीर , दीनरक्षक और दिव्य प्रस्तुत किया है जिसके सामने महाभारत के अन्य पात्र ऐसे प्रतीत होने लगे जैसे सूर्य अपनी चमक से सारे अन्य प्रकाश धूमिल होते नज़र आने लगते हैं ।
इस उपन्यास की भाषा शैली ,  पृष्ठभूमि पर इतनी सूक्ष्म पकड़, चारित्रिक संकल्पना इतनी सधी हुई जैसे कोई तीर  पारंगत धनुर्धर अपने  तूणीर से छोड़ता है और वो सीधे लक्ष्य पर लगता हैं ।
ऐसा महाकाव्य रचा गया कि जिसके जैसा मार्मिक और सत्याभिवक्ति करने वाला अन्य कुछ इसके सामने नही टिकता ।
इस उपन्यास में कर्ण,कुंती ,दुर्योधन , वृषाली( कर्ण की पत्नी ) ,शोण, और कृष्ण के आत्मकथ्यों के माध्यम से घटनाओं को वर्णित किया गया है ।
कर्ण की आत्मकथा जैसे शुरू होता है ये उपन्यास जहां कर्ण की हर संभव यह कोशिश है कि वह अपने जीवन के तरकश को  अच्छी  तरह खोल कर दिखा सके,जिसमे अनेक आकारों की विविध घटनाओं के बाण ठसाठस भरे हुए हैं...
वो अपने व्यक्तित्व के हर आयाम को सबके सामने ऐसे रख देना चाहता है, कोई छुपाव - दुराव नही हो जिसमें ..
उसके मन की व्यथा उससे कहती है कि "कर्ण! कहो ...अपनी जीवन - कथा ,ऐसे कि सब समझ सके कि तेरा जीवन चीथड़े के समान नहीं था,वरन वह तो गोटा लगा हुआ एक अतलसी राजवस्त्र था,परिस्थितियों के निर्दयी बाणों से उसके सहस्र चीथड़े हो गए थे,और जिसके हाथ में पड़े,उसने मनमाने ढंग से उनका प्रचार किया ...."
कथा की शुरुआत चंपानगरी से होती है जहां कर्ण का बचपन अपने पालक माता पिता ,राधा और अधिरथ के पुत्र के रूप में बीत रहा था ,उसका एक छोटा भाई भी था जिसका नाम शोण था,उपन्यास में कर्ण के बचपन का काफी विस्तार से वर्णन किया गया है ,उसके बचपन की हर छोटी बड़ी घटना को बड़े ही मार्मिक चित्रण से सजाया है ,पढ़ने पर हम उसको स्वयं अनुभव करते हैं कि कर्ण का बालपन  किन किन असमंजस से भरे प्रश्नों की अनबूझ पहेली जैसा रहा है , जिनका जवाब न उसके पास था न ही कोई ऐसा था जिससे वो अपने सवालों के उत्तर पा सके...
आगे उसका शास्त्र और शस्त्र विद्या सीखने के लिए हस्तिनापुर जाना ,वहां सभी विषयों में,विद्याओं में दक्ष, सर्वश्रेष्ठ होने के बावजूद भी उसकी जाति के कारण उसको उचित सम्मान और स्थान न मिलना बल्कि उपेक्षा,घृणा और अपमान से हर कदम उसका सामना होना ,
चाहे वो द्रोणाचार्य के द्वारा मिला हुआ धिक्कार हो या द्रौपदी के द्वारा अपने स्वयंवर में मिला हुआ तिरस्कार हो ,या माता कुंती द्वारा पैदा होते ही त्याग दिए जाने को असह्य पीड़ा हो ,या भीष्म पितामह द्वारा उसको कभी भी एक सम्मानित नागरिक तक न माने जाने का आत्मिक संताप हो .....
कर्ण का जीवन इन सभी दंशो के साथ भी ,अपने ऊर्जित ,गर्वित और पौरुष से भरे हुए मस्तक के साथ सदैव ऊंचे रहने में ही प्रयत्नशील रहा ..
जब भरी युद्धशाला में द्रोण के द्वारा अपमानित किए जाने पर ,दुर्योधन सामने आता है ,मैत्री भाव लेकर ( भले ही उसका वह प्रस्ताव ,स्वार्थ पूर्ति के लिए ही था) और कर्ण को "अंगराज" की उपाधि से अलंकृत कर सम्मान के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा देता है , उस उपकार का बदला कर्ण अपनी मृत्यु तक चुकाता है ,कहां होगा ऐसा साक्षात उदाहरण मैत्री का , कर्ण के जीवन के सिवा ....
अनेकों अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो आपकी आत्मा को झकझोर देते हैं,कचोटते है कर्ण के कष्ट हमें भी ,आखिर कर्ण के साथ ऐसा क्यों हुआ ????इतनी परीक्षा उसकी ,हर कदम पर ,हर बार जब वो जीत के एकदम निकट होता है ,उससे छीन लिया जाता है जीत का परचम और थमा दिया जाता है ,निकृष्ट जाति के होने का एक परिचय पत्र..........
कर्ण का हृदय सहमता नही ,डरता नहीं ,द्रवित होता है और चाहता है अपने हर प्रश्न का जवाब ...उठ खड़ा होता है वो हर आगे वाली चुनौती के लिए अपने पास सुरक्षित हर विराट शक्ति के साथ ,दोगुनी ,चार गुनी क्षमताओं को साथ लेकर ..
कर्ण के विशाल व्यक्तित्व का एक उदाहरण मिलता है जब श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध के निकट आने के समय राजकाज और शिष्टता की पूंजी साथ लेकर हस्तिनापुर जाते हैं और समझौते का प्रस्ताव रखते हैं,दुर्योधन उसको ठुकरा देता है और युद्ध की घोषणा हो जाती है, उस वक्त हस्तिनापुर से वापस जाते समय मात्र कर्ण ही ऐसा व्यक्ति होता है जिसका हाथ पकड़ कर कृष्ण अपने रथ में चढ़ा लेते हैं,उसको उसके जन्म का सम्पूर्ण रहस्य बताते हैं, उस चिरप्रतीक्षित सत्य को जानने के बाद भी ,उसका अपने वचन और स्नेहभाव दुर्योधन के लिए ही रखते हुए कौरवों का साथ देने के रहते कृष्ण का प्रस्ताव अस्वीकार करता है .....
उपन्यास ओत प्रोत है ऐसे हजारों, हृदय को प्रकंपित कर देने वाले प्रसंगों से ,उनको स्वयं पढ़कर उनकी अनुभूति करने का आनंद अवर्णनीय है ...
मेरी आंखों में आंसुओ की बूंदे लाने वाले प्रसंगों में से एक है - अर्घ्यदान के समय गंगातट पर "कर्ण - कुंती की भेंट ,इतना हृदयविदारक संस्मरण है वो ,शायद विश्व में माता - पुत्र के रिश्ते का इतना गहरा और बेमिसाल वर्णन कहीं और नही मिलेगा , अपने उस अस्तित्व के सत्य को जानने के लिए कर्ण को लगभग 75 साल घुटन,अपमान और घृणा झेलते हुए बिताने पड़े ,
वो प्रसंग आपका दिल जरूर द्रवित करेगा .....एक एक शब्द आत्मसात करने वाला है ।
कर्ण के परमदानी होने का परिचय देता हुआ अंश जहां वो इंद्र को अपने कवच और कुंडल सहर्ष उतार कर दे देता है , या परशुराम जी द्वारा शापित होकर ऐन वक्त पर ब्रह्मास्त्र का उपयोग न कर पाने का परम दुख सहन करके भी पथभ्रष्ट न होना ,अपने वचन पर टिके रहकर अपने सर्वस्व का बलिदान दे देना ,सिर्फ कर्ण का पराक्रम ही कर दिखा सकता था ....
सारा कुछ न लिख पाने की कुछ मेरी मजबूरी है ,एक तो इस महाकाव्य रूपी सागर को मैं अपनी लेखनी की गागर में भरने की सिर्फ एक कोशिश मात्र कर सकती हूं ,जो मैने की है ....दूसरा ये कि मैं चाहती हूं ....दिल से .. कि यहां सभी अच्छा पढ़ने वाले लोग इस महाग्रंथ को अपने जीवन में अवश्य ,अवश्य पढ़ें ,..कई बार पढ़ सके तो कई बार वरना एक बार तो अवश्य ही पढ़ें ...और स्वयं साहित्य सरिता में गोते लगाएं और साक्षी बने इस महान कलाकृति के .....
पढ़कर परिचित होइए एक अडिग, अशरण, अंगराज दिग्विजयी,दानवीर, राधेय,कौंतेय , सूर्यपुत्र,सही अर्थों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ पांडव ,कर्ण से ,जिसको एक सीमित क्षेत्र में बांधना अति दुरूह कार्य है।

"दुस्साहस था कि वह पहुंचा ,राजरंगशाला में ।
चमके जैसा कमल चमकता ,कनक किरणमाला में ।।"
कर्ण के सुवर्ण का वर्णन खुद महसूस कीजिए।
निवेदन है आप सबसे।।🙏🙏🙏

नाम - मृत्युंजय
लेखक - शिवाजी सावंत (मूलतः मराठी में)
अनुवाद - ओम शिवराज ( अनुपम अनुवाद - कोटिशः 
नमन )
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ 
ISBN- 9789326350617
मूल्य - 399रुपए 

https://dl.flipkart.com/s/iw3FSaNNNN

Sholay: The Making of Classic : Anupama Chopra

Book : Sholay - The Making of Classic Written by: Anupma Chopra Publication : Penguin Random House Books, India Price : 299/- Pages : 194 IS...