रुक जाओ
निशा : एक पाठक की प्रतिक्रिया
उपन्यास
: रुक जाओ निशा
लेखक
: जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा
उपन्यास
विधा : सामाजिक
प्रकाशक
: नीलम जासूस कार्यालय, रोहिणी, सेक्टर-8, नई दिल्ली
पृष्ठ
: 212
MRP:
225/-
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जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा |
25
दिसंबर, 1924 को जन्में श्री ओम प्रकाश शर्मा जी उपन्यास जगत में ‘जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा’ के नाम से जाने जाते
हैं । उन्हें अपने समय में जो प्रसिद्धि मिली, वह उनके
द्वारा रचे गए विराट साहित्य का ही परिणाम थी और वह आज भी यथावत है । तथाकथित
साहित्य मनीषियों द्वारा उनको ‘लुगदी साहित्य’ या आज के ‘लोकप्रिय साहित्य’
की परिधि में बांध देने का प्रयास उनके द्वारा रचे गए कथा संसार के परिप्रेक्ष्य
में कहीं से भी न्यायोचित या तर्कसंगत नहीं हैं । उनके द्वारा रचित चार सौ से अधिक
उपन्यासों का विविध संसार उनकी गौरवशाली साहित्य यात्रा की गवाही देता है ।
आज
के परिवेश में उपन्यास पढ़ने और पढ़ाने की परंपरा अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए, मोबाइल और इंटरनेट के माध्यम से सर्वसुलभ हो चुके मायाजाल से, निर्णायक संघर्ष के दौर में पहुँच चुकी है । इस दौर में सर्वश्री ओम
प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कम्बोज,
गुरुदत्त, रोशन लाल सुरीरवाला, कुमार
कश्यप जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों के अनुपलब्ध हो चुके उपन्यासों को पुनःप्रकाशित
करने का बीड़ा नीलम जासूस कार्यालय ने उठाया है । ओमप्रकाश शर्मा जी के अनुपलब्ध
उपन्यास नीलम जासूस कार्यालय के प्रयासों से पाठकों को उपलब्ध होने लगे हैं जिससे
पाठकों की नई पीढ़ी उनके रचनाकर्म से भली-भांति परिचित हो सके । इसी कारण मैं भी
उनके उपन्यासों के संसर्ग का लाभ उठा रहा हूँ ।
लोकप्रिय
साहित्य में श्री ओम प्रकाश शर्मा जी ने कुछ ऐसे किरदारों की रचना की है जो पाठकों
में बहुत लोकप्रिय रहे जैसे जगत, गोपली,
चक्रम, बंदूक सिंह इत्यादि । हालांकि उनके अधिकतर उपन्यास
जासूसी क्षेत्र में रहस्य और रोमांच का
मनमोहक जाल बुनते हैं जिसमें पाठक एक अलग
ही दुनिया में पहुँच जाते हैं लेकिन ओम प्रकाश शर्मा जी के ऐतिहासिक और सामाजिक
उपन्यास भी उसी ठोस धरातल पर खड़े नजर आते हैं जिसकी बुनियाद आचार्यचतुरसेन
शास्त्री, शरत चंदर या बंकिम चंदर के उपन्यासों द्वारा रखी
गई थी । मेरा ऐसा कहना कुछ उपन्यास प्रेमियों को अतिशयोक्ति पूर्ण लग सकता है
परंतु जब हम प्रिया, धड़कनें, भाभी, एक रात, पी कहाँ और रुक जाओ निशा को पढ़ते हैं तो
हमें पाठक के रूप में उनके सामाजिक सरोकारों से साक्षात्कार करवाते उपन्यासों के
विविध कथा-संसार के दर्शन होते हैं ।
उनके
सामाजिक उपन्यासों में तत्कालीन सामाजिक परिवेश का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है
। ‘रुक जाओ निशा’ को जब मैं पढ़ रहा था तो मैं यकीन ही
नहीं कर सका कि मैं शरत चंदर जी को पढ़ रहा हूँ या ओम प्रकाश शर्मा जी को । ‘रुक जाओ निशा’ का घटनाक्रम सत्तर-अस्सी के दशक में
घटित होता है जिसकी पृष्ठभूमि में बंगाली परिवेश के सामाजिक सरोकारों को दर्शाया
गया है ।
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रुक जाओ निशा |
‘रुक जाओ निशा’ की कहानी निशा नाम की युवती के
इर्दगिर्द घूमती है, जो बीए पास है और उसके माता- पिता
मोहनकान्त भादुड़ी और रजनी का देहांत हो चुका है । उसके बड़े भाई निशिकांत पर उसकी
परवरिश का जिम्मा है । निशा की मुलाकात अमित सान्याल से होती है जिसकी परिणति उनके
विवाह में होती है । दुर्भाग्य से अमित एक जानलेवा बीमारी का शिकार होकर कालकवलित
हो जाता है और निशा का जीवन एक अंधकार से भर जाता है ।
अमित
की कंपनी का मैनेजर प्रथमेश सावंत एक प्रगतिशील सोच का व्यक्ति है जो निशा को अमित
की जगह नौकरी देना चाहता है । इस प्रकरण में ओम प्रकाश शर्मा जी ने संस्कृति के
नाम पर फैली रूढ़िवादिता और लालच पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया है जब पंचानन घोष
अनिल से सवाल करते है ... “क्या कहते हो अनिल ! तुम्हारा चलन क्या संसार से अलग है
? क्या बेचारी बहू की जिंदगी खराब करोगे।” इस प्रश्न के उत्तर में अनिल कहता
है, “काका, जाति नियम भी तो होता है
माँ पंद्रह साल से काशी में है । क्या गाँव की और विधवायें भी काशी गई है ?”
ससुराल
से परित्यक्त होकर, संस्कृति की आड़ में और संस्कारों के नाम पर अमित के परिवार से उसे ‘काशीवास’ पर भेज दिया जाता है । अमित का मित्र
परमानंद चटर्जी भी उसी ट्रेन में कलकत्ता से वाराणसी जा रहा होता है जिसमें निशा
को तीन सौ रुपए देकर सवार करवाया जाता है । परम निराश्रय निशा को अपने घर लेकर
जाता है जहां उसकी विधवा माँ सुखदा निशा को अपनी शरण में ले लेती है ।
‘रुक जाओ निशा’ में इसके बाद वाराणसी में उस समय फैली
सामाजिक कुरीतियों पर विस्तार से चिंतन और मनन किया गया है । सुखदा और परम जहां
प्रगतिशील सोच का प्रतिनिधित्व करते है वही ढोंगी आनंद स्वामी और कालीपद चटर्जी
रूढ़िवादिता के पक्षधर हैं । सीआईडी इंस्पेक्टर के रूप में लटकन महाराज निशा की
जिंदगी में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करते है । लेडी सब-इंस्पेक्टर प्रभा के
सहयोग से लटकन महाराज, ‘काशीवास’ की जिद पर अड़ी निशा को, वाराणसी के घाटों पर फैले व्यभिचार से अवगत करवाते हैं ।
ओम
प्रकाश शर्मा जी ने जहां पर नायिका के रूप में अपनी जिंदगी से विमुख हो चुकी निशा
का पात्र गढ़ा है जो मानसिक रूप से सामाजिक रूढ़ियों के प्रति आत्मसमर्पण कर चुकी है, वहीं सुखदा, प्रभा मिश्रा,
प्रिया, सुचित्रा, अर्चना श्रीवास्तव
के रूप में ऐसे किरदार गढ़ें हैं जिनके जीवन में हुई उथल-पुथल सी निशा को जीवन के
विविध पहलुओं को समझने में मदद मिलती है ।
‘रुक जाओ निशा’ में ओम प्रकाश शर्मा जी ने विधवा पुनर्विवाह
के लिए धर्म और आस्था में जारी कशमकश का बड़ा संतुलित विवेचन किया है । इस उपन्यास
में अपनी सुविधा और उपभोग के लिए धार्मिक मान्यताओं और रूढ़िवादी विचारधारा के
उपयोग और आमजन को उसपर चलने की बाध्यताओं का पुरजोर विरोध किया गया है । उपन्यास
के अंत में निशा अपने जीवन से अंधकार का खात्मा कर एक नए रास्ते पर चलने का निर्णय
लेती है या नहीं, यही प्रश्न परम के लिए एक यक्षप्रश्न के
रूप में उपस्थित होता है जिसका उत्तर उसे तब मिलता है जब वह नायिका को कहता है ‘रुक जाओ निशा’ ...
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
समीक्षक : जितेंद्र नाथ
प्रकाशित
रचनाएँ: राख़ (उपन्यास), पैसा ये पैसा (अनुवाद), खाली हाथ (अनुवाद), मौन किनारे एवं आईना
(कविता संग्रह)
नोट : यह समीक्षा नीलम जासूस कार्यालय द्वारा प्रकाशित तहक़ीक़ात पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है