Wednesday, September 28, 2022

Janpriya Lekhak Om Parkash Sharma : Andhere ke Deep : A Novel

 

जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा : अंधेरे के दीप : एक प्रासंगिक व्यंग्य

उपन्यास : अंधेरे के दीप 

लेखक : जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : नीलम जासूस कार्यालय, रोहिणी, दिल्ली - 110085

ISBN : 978-93-91411-89-3

पृष्ठ संख्या : 174

मूल्य : 200/-

आवरण सज्जा : सुबोध भारतीय ग्राफिक्स, दिल्ली  

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अंधेरे के दीप

जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा मुख्यतः अपने जासूसी उपन्यासों और पात्रों के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनके द्वारा कई ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास भी लिखे गए हैं जिनकी विस्तृत चर्चा शायद किसी माध्यम या प्लेटफॉर्म पर नहीं हुई । पाठक वर्ग पर उनके जासूसी किरदारों का तिलिस्म इस कदर हावी हुआ कि उनके द्वारा रचा गया 'खालिस साहित्य' नैपथ्य में चला गया ।

नीलम जासूस कार्यालय द्वारा जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा जी के पुनःप्रकाशित उपन्यास 'अंधेरे के दीप' को 'सत्य-ओम श्रंखला' के अंतर्गत मुद्रित किया गया है । 'सत्य-ओम श्रंखला' को नीलम जासूस कार्यालय के संस्थापक स्वर्गीय सत्यपाल जी  और श्री ओम प्रकाश शर्मा जी की याद में शुरू किया गया है ।

लाला छदम्मी लाल 'अंधेरे के दीप' के नायक हैं या यू कहिए कि यह उपन्यास उनको केंद्रीय पात्र बनाकर लिखा गया है । अपने केंद्रीय पात्र के बारे में ओम प्रकाश शर्मा जी कुछ यूं लिखते हैं : 'उस कारीगर ने विषय वस्तु का तो ध्यान रखा लेकिन रूप के बारे में वह वर्तमान हिन्दी कवियों की भांति प्र्योगवादी ही रहा .... रंग के बारे में भी गड़बड़ रही । उस दिन जब कि लाला के ढांचे पर रोगन किया जाने वाला था, हिंदुस्तान के इन्सानों को रंगने वाला गेंहुआ पेन्ट आउट ऑफ स्टॉक हो चुका था ...कारीगर ने काला और थोड़ा सा बचा लाल मिलाकर 'डार्क ब्राउन' लाला पर फेर दिया । नौसखिये  प्र्योगवादी कलाकार के कारण हमारे गुलफाम हृदय सेठ जी के होंठ ऐसे हैं मानो किसी सुघड़ कुंवारी कन्या द्वारा छोटे - छोटे उपले थापे गए हों ।'

जैसा ऊपर विवरण दिया गया है उसके हिसाब से आप समझ सकते हैं कि ओम प्रकाश शर्मा जी ने प्रचलित मान्यता के विपरीत एक ऐसा पात्र गढ़ा है जो शारीरिक रूप से सुन्दर नायक की श्रेणी में किसी भी कसौटी के हिसाब से पूरा नहीं उतरता है । लेकिन अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान । जब धन्ना सेठ फकीरचंद के इस लाल को भरपूर दौलत मिली हो तो शारीरिक सुंदरता के सारे नुक्स ढक जाते हैं । एक कहावत हमने सुनी है कि लंगूर के पल्ले हूर । रंभा के साथ लाला छदम्मी लाल का परिणय सूत्र में बंधना भी एक प्रकार का सौदा ही था जिसे लाला फकीरचंद ने अंजाम दिया । अब लाला छदम्मी के पास रंभा के रूप में खजाना होते हुए भी 'अंधेरे के दीप' के नायक छदम्मी के हाथ फूटी कौड़ी नहीं ! 

इसी कहानी में लाला छदम्मी के किस्से के साथ नवाब नब्बन और मैना का किस्सा है । जिसमें शायराना तबीयत का नवाब मैना के लिए दलाल का काम करता है । घूरे गोसाईं और गूदड़मल के राजनीतिक दावपेंच हैं । सुंदरलाल भी मौजूद है जो नाम के अनुरूप है पर है कड़का । प्रेम नाम का एक आदर्शवादी पात्र भी है जो नब्बन को वह इज्जत देता है जिसका वह स्वयं को पात्र नहीं समझता है । 

इस कहानी में ओम प्रकाश शर्मा जी ने राजनीति का बड़ा चुटीला और व्यंग्यात्मक विश्लेषण किया है ।एक पाठक के रूप में यह उपन्यास पढ़कर मैं अपने आप को चकित और मंत्रमुग्ध पाता हूँ । इसका एक कारण है इसके प्रासंगिकता । गूदड़मल  और गोसाईं के राजनीतिक दावपेंच आपको कहीं से भी पुराने नहीं लगेंगे । मुझे ऐसा लगा जैसे वे आज हो रही घटनाओं का सटीक विवरण लिख रहें हैं । स्वामी घसीटानन्द का प्रकरण इस बात का सुंदर उदाहरण है । जैसी उखाडपछाड़ जनसंघ और काँग्रेस में पूँजीपतियों को अपने वश में करने के लिए लगातार चलती रहती है उसका भी बड़ा चुटीला वर्णन किया गया है ।

समाज की बहुत बड़ी विद्रूपता 'अंधेरे के दीप' में दिखाई गई है। जो लोग समाज के अग्रणी लोग समझे जाते हैं, वे और उनका तबका किस हद तक नैतिक पतन का शिकार हो चुका है, यह हम सब जानते हैं । आए दिन की अखबार की सुर्खियाँ यह बताने के लिए काफी हैं । रंभा और लाला छ्द्दम्मी उनका प्रतिनिधित्व करते है । जो लोग समाज में दबे हुए है, नैतिकता और समाजिकता का सरोकार भी उन्हीं लोगों को है । मैना और नवाब नब्बन अपने तमाम कार्यों के बाद भी  रंभा और सुंदरलाल के मुकाबले उजले ही प्रतीत होते हैं ।

ओमप्रकाश शर्मा जी की भाषा एक अलग ही आयाम लिए हुए है । कसी हुई, कभी चुभती हुई और कभी गुदगुदाती हुई । ओम प्रकाश शर्मा जी के साहित्य के इंद्रधनुषी रंगों में से एक अलग ही रंग मुझे 'अंधेरे के दीप' में दिखा जो 'रुक जाओ निशा' की गंभीरता से अलग और 'प्रलय की साँझ' की ऐतिहासिकता से अलग है । यह रंग है व्यंग्य के बाणों का ।

मेरी नजर में यह उपन्यास कल भी सफल रहा होगा और आज भी प्रासंगिक है । जो समय की छाप शर्मा जी के कई जासूसी उपन्यासों पर नजर आती है उससे यह उपन्यास अछूता रहा है । अगर कुछ समय के लिए अपने वर्तमान को साथ लेकर अतीत में जाना चाहते हैं तो 'अंधेरे के दीप' अच्छी पसंद हो सकता है जिसमें जिस दिये की लौ अधिक है वह उतना ही काले धुएँ से ग्रसित है और जिस दिये के लौ टिमटिमा रही है वह उतना ही अधिक प्रकाशमान ।

और अंत में दो पंक्तियाँ उपन्यास के मुख्य पृष्ठ के बारे में... अवतार सिंह सन्धू पंजाब के इंकलाबी कवि हुए हैं जिन्हें 'पाश' के नाम से मकबूलियत हासिल हैं और आतंकवाद के दौर में उनकी आवाज को बन्दूक की गोली से शान्त कर दिया गया था। उनकी शख्शियत यानी चित्र को मुख्यपृष्ठ पर इस्तेमाल करना मुझे अखरा। मेरे ख्याल से यह उस क्रांतिकारी कवि के सम्मान में उचित नहीं है।

जितेन्द्र नाथ 

जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा 

 

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