पुस्तक : मेरी फिल्मी आत्मकथा
लेखक : बलराज साहनी
सम्पादन : संतोष साहनी
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स ( इंप्रिंट ऑफ पैंगविन बुक्स)
मूल्य : 199/-
पृष्ठ : 199
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हिन्दी सिनेमा में बलराज साहनी को कौन नहीं जानता । बलराज साहनी किसी परिचय के मोहताज भी नहीं है । कौन भूल सकता है फिल्म सीमा का वह गीत जिसमें अपनी आँखों से लाचार किरदार गाता है 'तू प्यार का सागर है' और नूतन को राह दिखाता है । हिन्दी फिल्म के इतिहास में स्वरणक्षरों में दर्ज की गई 'दो बीघा जमीन' का वह मजदूर किसान जिसे बलराज साहनी ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया था, आज भी फिल्मी दीवानों के दिलो दिमाग पर छा जाता है । बलराज साहनी की अन्य महत्वपूर्ण फिल्में है : भाभी, अनपढ़, वक्त, अनुपमा, काबुलीवाला, हँसते जख्म, गरम हवा, पराया धन इत्यादि ।
प्रस्तुत किताब बलराज साहनी का फिल्मी सफरनामा ब्यान करती है जिसका वर्णन बलराज साहनी ने किया है । शायद यह पुस्तक पहले पंजाबी में छपी थी जिसे हिन्दी में बाद में प्रकाशित किया गया है । बलराज साहनी की यह किताब पढ़ना एक तरह से अतीत के सिनेमा की यात्रा करने के समान है । यह पुस्तक अपने समय की एक चर्चित पुस्तक है जिसे सिनेप्रेमियों और साहित्य प्रेमियों ने बड़ा सराहा था । पुस्तक के रूप में छपने से पहले यह किसी अखबार में शायद धारावाहिक के रूप में छपी थी ।
बलराज साहनी के कैरियर की शुरुआत शांतिनिकेतन में अध्यापन के तौर पर शुरू हुई लेकिन मन उनका अभिनय के क्षेत्र में पलायन करने को हमेशा बेताब रहता था । उनकी पहली पत्नी दमयंती, जिसका जिक्र उन्होंने दम्मो के रूप में किया है, उनके साथ शांतिनिकेतन और रेडियो में समान रूप से सक्रिय रहीं । फिल्मों में दमयंती का कैरियर बलराज से पहले शुरू हुआ जिसकी कुंठा का बलराज जी ने बड़ी बेबाकी से वर्णन किया है । इतना बड़ा अभिनेता भी पौरुष दंभ और कुंठा का शिकार रहा जिसे बलराज जी ने ईमानदारी से स्वीकार किया है ।
'मेरा कर्तव्य था कि उस समय अपनी पत्नी की ढाल बनता, उसके कलात्मक जीवन की कद्र करता, रक्षा करता, उसे फिज़ूल के झमेलों से बचाता और पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर लेता । पर मैं अपनी संकीर्णता के कारण मन ही मन दम्मो की प्रसिद्धि से ईर्ष्या करने लगा था । वह स्टूडिओसे थकी हारी हुई आती तो मैं उससे ऐसा सलूक करता जैसे वह कोई गलती करके आई हो । मैं चाहता कि वह आते ही घर के काम-काज में लग जाये जोकि मेरी नजर में उसका असली काम था । अपने बड़प्पन का दिखावा करने के लिए मैं इप्टा और कम्यूनिस्ट पार्टी के अनावश्यक काम भी करने लग जाता था..... बेचारी बिना किसी शिकायत के वह सारा भार उठाती गई जिसे उठाने का उसमें सामर्थ्य नहीं था । इन बातों को याद करके मेरे दिल में टीस उठती है । दम्मो एक अमूल्य हीरा थी जो उसके माता-पिता ने एक ऐसे व्यक्ति को सौंप दिया था जिसके दिल में न उसकी कोई कद्र थी, न ही कोई कृतज्ञता का भाव था । (पेज 127)
बलराज साहनी ने सपत्नीक बीबीसी लंदन में काम किया और उस वक्त के जीवन और बेफिक्री का, जिसे हम भौतिक सुख-सुविधा का आभा मण्डल कह सकते हैं, बड़े विस्तार से वर्णन किया है । उस वक्त सिनेमा का विकास हो रहा था और विश्व में साहित्य को सिनेमा के पर्दे पर उतारा जा रहा था । उनके मन पर उस वक्त की एक रूसी फिल्म 'सर्कस' का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा । उस वक्त की रूसी फिल्मों के प्रभाव के कारण वे कम्यूनिस्ट विचारधारा की तरफ मुड गए ।
'इस तरह सोवियत यूनियन, मार्क्सवाद और लेनिनवाद से मेरी पहचान फिल्मों के द्वारा हुई । मैं उस देश को जानने के लिए उत्सुक हो गया जो इतनी अच्छी फिल्में बनाता था ... मार्क्सवाद के बारे में पढ़ते हुए मुझे रजनी पामदत्त और कृष्ण मेनन का पता चला । मुझे समझ आने लगा कि महायुद्ध क्यों होता है ? (पेज 38)
आज हम बलराज साहनी को एक महान अभिनेता के तौर पर जानते हैं । अभिनय के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने से पहले उन्हें अपनी जड़ता की बेड़ियाँ तोड़ने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा । इसके लिए चरित्र अभिनेता डेविड के साथ बलराज साहनी का संस्मरण एक अभिनेता के रूप में उनकी बेचैनी को दर्शाता है । 'हम लोग' की सफलता से पहले इस जड़ता ने उनका पीछा नहीं छोड़ा । महान फ़िल्मकार के आसिफ की फिल्म 'हलचल' के वक्त का अनुभव वे कुछ यूं दर्ज करते हैं :
'कैमरे के सामने जाना मुझे सूली पर चढ़ने के बराबर लगता था । मैं अपने आपको संभालने की बहुत कोशिश करता । कई बार रिहर्सल भी अच्छी भली कर जाता । सभी मेरी हिम्मत बढ़ाते । पर शॉट के एन बीच में मुझे पता नहीं क्या हो जाता कि मुझे अपने अंग अंग जकड़ा हुआ लगता...' पेज 150
'मेरी फिल्मी आत्मकथा' अभिनय के शिखर पर पहुंचे हुए एक महान अभिनेता के फिल्मी अनुभव है जिसे बड़ी ईमानदारी के साथ लिखा गया है । लेखन शैली के हिसाब से यह संस्मरणात्मक पुस्तक बेजौड़ है और साहित्य में एक अलग स्थान रखती है । फिल्मों से प्रेम करने वाला व्यक्ति इसे अवश्य ही पढ़ना चाहेगा लेकिन प्रकाशन की हल्की गुणवत्ता पाठकों को निराश करती है ।
पुस्तक की क्वालिटी के कड़वे अनुभव :
बलराज साहनी की यह किताब बड़े चाव से मंगवाई थी। इस किताब के साथ बड़े प्रकाशन 'पेंगुइन' का नाम जुड़ा है लेकिन किताब में इतनी गलतियां है कि सारा मजा किरकिरा हो गया। प्रूफ रीडिंग बहुत ही निचले स्तर की है... या यूं कहिए कि स्तर है ही नहीं
आप भी गौर कीजिए...
इतनी शानदार आत्मकथा का दोयम दर्जे का प्रस्तुतिकरण दिल को दुखा गया।
आलम आरा मूवी को सभी भारतीय जानते हैं और बलराज साहनी उसको गलत नहीं लिख सकते। जिन पृष्ठों को मैंने शेयर किया है, उसमें आप पालम पारा... पालम आरा छपा हुआ देख सकते हैं। पी सी बरुआ अपने समय के दिग्गज निर्देशक थे। पर पेज नंबर 31पर बरुणा, बरुमा, बरूपा लिखा हुआ है मजाल है कहीं बरुआ छापने की जहमत उठाई हो। संगीत निर्देशक आर सी बोराल को पार सी बोराल लिखा गया है। बलराज साहनी चाहे किसी भी भाषा में लिखें लेकिन उन जैसा जहीन कलाकार ऐसी गलती नहीं करेगा। यह सरासर प्रकाशन में हुई लापरवाही है। हर पेज पर यही हाल है।
पुस्तक का प्रस्तुतुकरण भी बेहद बचकाना है । आवरण पृष्ठ के लिए ब्ल्राज साहनी के चित्र निराश करता है । यकीनन बलराज साहनी के इससे श्रेष्ठ छाया चित्र उपलब्ध होंगे । पैंगविन और हिन्द पॉकेट बुक्स के बड़े नाम जुड़े होने के बावजूद पुस्तक का प्रस्तुतुकरण निराश करता है ।
© जितेन्द्र नाथ