Sunday, December 25, 2022
Chausar : Jitender Nath : Reviews
Saturday, October 8, 2022
Balraj Sahni : Meri filmy atamkatha
Wednesday, September 28, 2022
Janpriya Lekhak Om Parkash Sharma : Andhere ke Deep : A Novel
जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा : अंधेरे के दीप : एक प्रासंगिक
व्यंग्य
उपन्यास : अंधेरे के दीप
लेखक : जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा
प्रकाशक : नीलम जासूस कार्यालय, रोहिणी,
दिल्ली - 110085
ISBN : 978-93-91411-89-3
पृष्ठ संख्या : 174
मूल्य : 200/-
आवरण सज्जा : सुबोध भारतीय ग्राफिक्स, दिल्ली
AMAZON LINK :अँधेरे के दीप
अंधेरे के दीप |
जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा मुख्यतः अपने जासूसी उपन्यासों और
पात्रों के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनके द्वारा
कई ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास भी लिखे गए हैं जिनकी विस्तृत चर्चा शायद किसी
माध्यम या प्लेटफॉर्म पर नहीं हुई । पाठक वर्ग पर उनके जासूसी किरदारों का तिलिस्म
इस कदर हावी हुआ कि उनके द्वारा रचा गया 'खालिस साहित्य'
नैपथ्य में चला गया ।
नीलम जासूस कार्यालय द्वारा जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा जी के
पुनःप्रकाशित उपन्यास 'अंधेरे के दीप' को 'सत्य-ओम श्रंखला' के अंतर्गत मुद्रित किया गया है । 'सत्य-ओम श्रंखला' को नीलम जासूस कार्यालय के
संस्थापक स्वर्गीय सत्यपाल जी और श्री ओम प्रकाश शर्मा जी की याद में शुरू किया गया है ।
लाला छदम्मी लाल 'अंधेरे के दीप' के नायक हैं या यू
कहिए कि यह उपन्यास उनको केंद्रीय पात्र बनाकर लिखा गया है । अपने केंद्रीय पात्र
के बारे में ओम प्रकाश शर्मा जी कुछ यूं लिखते हैं : 'उस कारीगर ने विषय वस्तु का तो ध्यान रखा लेकिन रूप के बारे में वह
वर्तमान हिन्दी कवियों की भांति प्र्योगवादी ही रहा .... रंग के बारे में भी गड़बड़
रही । उस दिन जब कि लाला के ढांचे पर रोगन किया जाने वाला था, हिंदुस्तान के इन्सानों को रंगने वाला गेंहुआ पेन्ट आउट ऑफ स्टॉक हो चुका
था ...कारीगर ने काला और थोड़ा सा बचा लाल मिलाकर 'डार्क
ब्राउन' लाला पर फेर दिया । नौसखिये प्र्योगवादी कलाकार के कारण हमारे गुलफाम हृदय सेठ जी के होंठ ऐसे हैं
मानो किसी सुघड़ कुंवारी कन्या द्वारा छोटे - छोटे उपले थापे गए हों ।'
जैसा ऊपर विवरण दिया गया है उसके हिसाब से आप समझ
सकते हैं कि ओम प्रकाश शर्मा जी ने प्रचलित मान्यता के विपरीत एक ऐसा पात्र गढ़ा है
जो शारीरिक रूप से सुन्दर नायक की श्रेणी में किसी भी कसौटी के हिसाब से पूरा नहीं
उतरता है । लेकिन अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान । जब धन्ना सेठ फकीरचंद के इस लाल
को भरपूर दौलत मिली हो तो शारीरिक सुंदरता के सारे नुक्स ढक जाते हैं । एक कहावत
हमने सुनी है कि लंगूर के पल्ले हूर । रंभा के साथ लाला छदम्मी लाल का परिणय सूत्र
में बंधना भी एक प्रकार का सौदा ही था जिसे लाला फकीरचंद ने अंजाम दिया । अब लाला
छदम्मी के पास रंभा के रूप में खजाना होते हुए भी 'अंधेरे के दीप' के नायक छदम्मी के हाथ
फूटी कौड़ी नहीं !
इसी कहानी में लाला छदम्मी के किस्से के साथ नवाब नब्बन और मैना का किस्सा है । जिसमें शायराना तबीयत का नवाब मैना के लिए दलाल का काम करता है । घूरे गोसाईं और गूदड़मल के राजनीतिक दावपेंच हैं । सुंदरलाल भी मौजूद है जो नाम के अनुरूप है पर है कड़का । प्रेम नाम का एक आदर्शवादी पात्र भी है जो नब्बन को वह इज्जत देता है जिसका वह स्वयं को पात्र नहीं समझता है ।
इस कहानी में ओम प्रकाश शर्मा जी ने राजनीति का बड़ा
चुटीला और व्यंग्यात्मक विश्लेषण किया है ।एक पाठक के रूप में यह उपन्यास पढ़कर मैं
अपने आप को चकित और मंत्रमुग्ध पाता हूँ । इसका एक कारण है इसके प्रासंगिकता ।
गूदड़मल और गोसाईं के राजनीतिक
दावपेंच आपको कहीं से भी पुराने नहीं लगेंगे । मुझे ऐसा लगा जैसे वे आज हो रही
घटनाओं का सटीक विवरण लिख रहें हैं । स्वामी घसीटानन्द का प्रकरण इस बात का सुंदर
उदाहरण है । जैसी उखाडपछाड़ जनसंघ और काँग्रेस में पूँजीपतियों को अपने वश में करने
के लिए लगातार चलती रहती है उसका भी बड़ा चुटीला वर्णन किया गया है ।
समाज की बहुत बड़ी विद्रूपता 'अंधेरे
के दीप' में दिखाई गई है। जो लोग समाज के अग्रणी लोग समझे
जाते हैं, वे और उनका तबका किस हद तक नैतिक पतन का शिकार हो
चुका है, यह हम सब जानते हैं । आए दिन की अखबार की सुर्खियाँ
यह बताने के लिए काफी हैं । रंभा और लाला छ्द्दम्मी उनका प्रतिनिधित्व करते है ।
जो लोग समाज में दबे हुए है, नैतिकता और समाजिकता का सरोकार
भी उन्हीं लोगों को है । मैना और नवाब नब्बन अपने तमाम कार्यों के बाद भी
रंभा और सुंदरलाल के मुकाबले उजले ही प्रतीत होते हैं ।
ओमप्रकाश शर्मा जी की भाषा एक अलग ही आयाम लिए हुए है ।
कसी हुई, कभी चुभती हुई और कभी गुदगुदाती हुई । ओम प्रकाश
शर्मा जी के साहित्य के इंद्रधनुषी रंगों में से एक अलग ही रंग मुझे 'अंधेरे के दीप' में दिखा जो 'रुक
जाओ निशा' की गंभीरता से अलग और 'प्रलय
की साँझ' की ऐतिहासिकता से अलग है । यह रंग है व्यंग्य के
बाणों का ।
मेरी नजर में यह उपन्यास कल भी सफल रहा होगा और आज भी प्रासंगिक है ।
जो समय की छाप शर्मा जी के कई जासूसी उपन्यासों पर नजर आती है उससे यह उपन्यास
अछूता रहा है । अगर कुछ समय के लिए अपने वर्तमान को साथ लेकर अतीत में जाना चाहते
हैं तो 'अंधेरे के दीप' अच्छी पसंद हो
सकता है जिसमें जिस दिये की लौ अधिक है वह उतना ही काले धुएँ से ग्रसित है और
जिस दिये के लौ टिमटिमा रही है वह उतना ही अधिक प्रकाशमान ।
और अंत में दो पंक्तियाँ उपन्यास के मुख्य पृष्ठ के बारे में...
अवतार सिंह सन्धू पंजाब के इंकलाबी कवि हुए हैं जिन्हें 'पाश' के नाम से मकबूलियत हासिल हैं और आतंकवाद के
दौर में उनकी आवाज को बन्दूक की गोली से शान्त कर दिया गया था। उनकी शख्शियत यानी
चित्र को मुख्यपृष्ठ पर इस्तेमाल करना मुझे अखरा। मेरे ख्याल से यह उस क्रांतिकारी
कवि के सम्मान में उचित नहीं है।
Ⓒ जितेन्द्र नाथ
जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा |
Thursday, August 25, 2022
5 books in my library
Tuesday, June 28, 2022
सुबोध भारतीय : हैशटैग : बदलते समाज में उम्मीदों को तलाश करती कहानियाँ
पुस्तक : # हैशटैग – अर्बन स्टोरीज़
लेखक
: सुबोध भारतीय
प्रकाशन
: सत्यबोध प्रकाशन,
सैक्टर 14 विस्तार, रोहिणी
पृष्ठ
: 168
मूल्य
: 175/-
उपलब्ध
: अमेज़न और सत्यबोध प्रकाशन पर उपलब्ध
इस
कहानी-संग्रह के लेखक सुबोध भारतीय जी प्रकाशन क्षेत्र में अपने पिता श्री लाला
सत्यपाल वार्ष्णेय की विरासत को संभाले हुए दूसरी पीढ़ी के ध्वजवाहक हैं । सुबोध जी
नीलम जासूस कार्यालय और उसकी सहयोगी संस्था सत्यबोध प्रकाशन को एक बार फिर से वह
मुकाम दिलाने की पुरजोर प्रयास कर रहें है जो नीलम जासूस कार्यालय को लोकप्रिय
साहित्य के स्वर्णिम काल में हासिल था । वे अपनी कोशिशों में काफी हद तक कामयाब भी
रहें हैं । 2020 के कोरोना काल से अबतक उनके प्रकाशन संस्थान से सौ से अधिक
पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जो उनकी अदम्य जिजीविषा का ही परिणाम है ।
इन
सब व्यस्तताओं के बावजूद सुबोध जी का एक साहित्यकार रूप भी सामने आया है । उनके
द्वारा लिखी हुई कहानियों का संग्रह #हैशटैग-अर्बन
स्टोरीज़, हाल ही में, नीलम जासूस
कार्यालय की सहयोगी संस्था, ‘सत्यबोध
प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ है ।
#हैशटैग : टाइटल पेज
आजकल, जीवन का ऐसा कोई पल
नहीं है जिसमें हम सोशल मीडिया से न जुडें हों । सुबह की शुभकामनाओं से लेकर
रात्रि के सोने तक हम इस आभासी संसार से दूर नहीं हैं । सोशल मीडिया में #हैशटैग किसी क्रान्ति से कम नहीं है जो कई प्रकार से सामाजिक सरोकारों से
दूर बैठे हुए अंजान लोगों को एक मंच पर लाने का काम करता है । सुबोध भारतीय जी की किताब का शीर्षक अपने आप
में अलग है जो पाठक को पहले ही आगाह कर
देता है कि किस तरह के समाजिक परिवेश की कहानियाँ उसे पढ़ने को मिलने वाली हैं ।
किताब
का मुखपृष्ठ साधारण होते हुए भी अपने आप में एक असाधारण कलात्मकता को दर्शाता है ।
आवरण पर दिखाई गई युवती इस कहानी संग्रह में शामिल #हैशटैग नामक
कहानी की नायिका हो सकती है या फिर सुबोध भारतीय जी की कहानी के पात्रों में से
कोई भी पात्र, जो अपने जीवन के अँधियारे पलों में से कुछ
रोशनी ढूँढने की तमाम कोशिश करते हैं । उस युवती के चेहरे पर परिलक्षित होती
रेखाएँ प्रतीक हैं उन दुविधाओं, परेशानियों और दुख का, जिनसे समाज का हर नागरिक अपने
जीवन में कभी न कभी सामना करता है ।
#हैशटैग : अर्बन स्टोरीज़ : बदलते समाज में उम्मीदों को तलाश करती कहानियाँ
आप
इस पुस्तक को 8 कहानियों का एक गुलदस्ता कह सकते है जिसमें हर कहानी का रंग अलग है, परिवेश बेशक महनगरीय है लेकिन ये कहानियाँ हर किसी सामाजिक परिवेश का
प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखती है । इन आठ कहानियों में क्लाइंट, खुशी के हमसफर, शीर्षक कहानी #हैशटैग, बिन बुलाये मेहमान,
अहसान का कर्ज, अम्मा, हम न जाएंगे
होटल कभी, डाजी : खुशियों का नन्हा फरिश्ता सम्मिलित हैं ।
हर कहानी शुरुआत से ही एक कौतूहल जगाने में कामयाब होती है जिससे पाठक तुरंत उस
कहानी का अंत जानना चाहता है । यही बात इस कहानी संग्रह को कामयाबी प्रदान करती है
।
1.
क्लाइंट
: यह कहानी महानगरीय जीवन में अकेले रह रहे देव प्रसाद की कहानी है जिसका एक अपना अतीत
है । उस अतीत के साये में एकाकी और श्याम-श्वेत जीवन जी रहे देव प्रसाद को एक
टेलेफोनिक काल वापिस उम्मीद भरे भविष्य की तरफ खींच लाती है जहां उसके तसव्वुर में
फिर रंग बिखरने लगते हैं । सुबोध भारतीय जी ने देव प्रसाद के चरित्र के माध्यम से
पुरुष मनोवृति का सटीक चित्रण किया है । इस तरह की मनोदशा से लगभग सभी पुरुष अपने
जीवन की किसी न किसी अवस्था गुजरते हैं । किसी नारी का सामीप्य देव प्रसाद की
कल्पना के घोड़ों को एक ऐसी उड़ान प्रदान करता है जिसका अंत उसके काल्पनिक भविष्य को
चकनाचूर कर देता है । मानवीय मनोविश्लेषण करते हुए सुबोध जी ने इस कहानी को सार्थक
परिणति प्रदान की है ।
2.खुशी
के हमसफर/ #हैशटैग : लिव-इन रिलेशन महानगरीय जीवन
में पनपता एक नया रोग है जिसे समाज में अभी पूर्ण स्वीकार्यता नहीं मिली है ।
सुबोध भारतीय जी ने अपनी दोनों कहानियों में लिव-इन रिलेशन के दो अलग-अलग पहलुओं
को सामने रखा है । ‘खुशी के हमसफर’ में जहां पर निरुपमा वर्मा और
राजेन्द्र तनेजा के बीच में एक दूसरे के प्रति सम्मान और नैतिक समर्पण है जो
शारीरिक लिप्साओं से परे है वहीं पर #हैशटैग में नई पीढ़ी की
मानसिक और शारीरिक स्वछंदता का चित्रण है जहां पर मानवीय संवेदनाएं जीवन के सबसे
निचले पायदान पर है । ‘खुशी के हमसफर’
बढ़ती उम्र के साथ संतान के अपने माता-पिता से विमुख हो जाने की व्यथा के साथ-साथ
जीवन के आखिरी पड़ाव में भी जीवन को सार्थकता प्रदान करने की जद्दोजहद को बखूबी
दर्शाती है वहीं #हैशटैग सोशल मीडिया के नकारात्मक और
सकारात्मक पहलुओं को इंगित करती है ।
3.
बिन बुलाये मेहमान/अहसान का कर्ज़ : इन दोनों ही कहानियों में
मेहमानों का चित्रण है । ‘बिन बुलाये मेहमान’ में आगंतुक किशन और राधा, मोहित के जाने-पहचाने मेहमान हैं, वहीं पर ‘अहसान का कर्ज़’ में सुखबीर के घर में मेहमान के तौर
पर आने वाले सरदार जी गुरविंदर रहेजा उसके लिए नितांत अजनबी है ।
कई बार जो लोग हमें किसी बोझ की तरह से लगते हैं वही लोग हमारे जीवन में
खुशियाँ भर देते हैं और जिनसे हमें बहुत उम्मीद होती है वो लोग मुश्किल के समय पीठ
दिखा जाते हैं । वहीं पर जाने-अनजाने मुश्किल वक्त में किसी को दिया गया सहारे के
रूप में रोपा गया बीज वक्त के साथ कई गुना फल देकर जाता है । इन दोनों
कहानियां इन दोनों भावनाओं को केंद्र में रख कर आगे बढ़ती हैं ।
4.
अम्मा : इस
कहानी का ताना-बाना एक अंजान वृद्ध स्त्री और एक परिवार के बीच पनपते स्नेह
और अपने आत्मसमान को बनाए रखने की कहानी
है । एक अंजान भिखारिन की तरह जीवन-यापन करती हुई एक वृद्धा अम्मा के रूप में रेणु
के परिवार का अभिन्न अंग बन जाती है । विपरीत परिस्थितियों में भी अपने आप को
टूटने और बिखरने से बचाने की सीख दे जाती है ‘अम्मा’ । यह कहानी लेखक के नजरिए से चलती है और अंत सुखद है ।
5. हम
न जाएँगे होटल कभी : यह कहानी एक हल्के-फुल्के अंदाज में लिखी गई है । इसे हम
हास्य और व्यंग का मिश्रण कह सकते हैं । कहानी एक रोचक अंदाज में लिखी गई है जो इस
बात का परिचायक है कि सुबोध जी व्यंग के क्षेत्र में बखूबी अपनी कलम चला सकते हैं
। उम्मीद है कि इस विधा में उनकी और भी रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी ।
6.
डाज़ी-खुशियों का नन्हा फरिश्ता : यह इस संग्रह का सबसे अंतिम कहानी
है । एक पालतू जानवर किस तरह से परिवार में अपनी जगह बना लेता है, इसका सुबोध भारतीय जी ने ‘डाज़ी’ के माध्यम से बड़ा खूबसूरत और मार्मिक चित्रण किया है । हम लोगों में से
बहुत से लोग इस अनुभव से गुजरे हैं और ऐसा लगता है कि जैसे हमारे ही परिवार की बात
चल रही है । इस कहानी या यूं कहे कि रेखाचित्र को पढ़ने के बाद यूं लगने लगता है कि
डाज़ी हमारे आसपास ही है ।
प्रस्तुत
कहानी-संग्रह की कहानियाँ जीवन में धूमिल होती किसी न उम्मीद को तलाश करती हुई
प्रतीत होती हैं । ‘क्लाईंट’ और ‘डाज़ी’ को छोडकर सभी कहानियाँ एक सुखांत पर जाकर ख़त्म होती हैं जो लेखक के
सकारात्मक सोच का परिचायक है । काश, ऐसा आम जिंदगी में भी हो
पाता ।
सुबोध
भारतीय जी की भाषा शैली बिलकुल सरल है । मेरी नजर में, किसी लेखक का सरलता से अपनी बात कह देना और पाठक तक अपना दृष्टिकोण
पहुंचा देना सबसे कठिन होता है । किसी भी कहानी में उन्होने अपनी विद्वता का
प्रदर्शन नहीं किया है जो काबिले तारीफ है वरना तो साहित्य का एक पैमाना यह भी हो
चला है जो रचना पढ़ने वाले के सिर पर जितना ऊपर से जाएगी वह उतनी ही श्रेष्ठ होगी ।
अपने पाठक के धरातल पर जाकर उससे संवाद करना सुबोध जी खूबी है । कुछ जगहों पर
दोहराव है जिससे बचा जा सकता है ।
इस
श्रेष्ठ साहित्यिक कृति के लिए सुबोध जी को हार्दिक बधाई । सर्वश्रेष्ट इस लिए
नहीं कहा कि अभी तो आग़ाज़ हुआ है और उम्मीद है कि हम पाठक उनकी रचनाओ से अब लगातार रूबरू
होते रहेंगे ।
#यह समीक्षा तहक़ीक़ात पत्रिका के दूसरे अंक में प्रकाशित हुई है ।
हैशटैग-अर्बन स्टोरीज |
Wednesday, May 4, 2022
भीष्म साहनी:शोभायात्रा
Monday, February 21, 2022
सुरेश वशिष्ठ : रक्तबीज
रक्तबीज, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सुरेश वशिष्ठ जी का कहानी संग्रह है। इस कथा संग्रह में 51 कहानियां हैं और अंत में हरियाणा के प्रमुख साहित्यकार श्री राजकुमार निजात की समीक्षा है।
रक्तबीज-सुरेश वशिष्ठ |
रक्तबीज की कहानियों में भारत, हिंदुस्तान और इंडिया के द्वंद्व, संदेह और सवाल अत्यंत मुखर हो कर उपस्थित हैं। कहानियों के पात्र हमारे आसपास के परिवेश से सामने आते हैं और अपनी कहानी हमें सुनाते हैं और फिर मस्तिष्क और हृदय के कोने में बैठ जाते हैं । फिर वे हमारी मनःस्थिति को भापते हुए कई देर तक विचरते रहते हैं।
सभी कहानियों में मन और मस्तिष्क को उद्वेलित करने की पर्याप्त क्षमता है। सुरेश वशिष्ठ जी के कथा परिवेश में भारतीय समाज के सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक संक्रमण काल के प्रश्न सजीव हो उठते हैं। 'संस्कार' कहानी जहां पर एक विधुर की मनोदशा का वर्णन करती है वहीं पर 'सलीका' जिंदगी को समझौते की डगर पर डगमगाते हुए दिखाती है। 'रक्तबीज' जैसी कहानियों में धार्मिक मतान्धता को उसके नग्न स्वरूप में डॉ सुरेश वशिष्ठ पूरी तरह से सफल रहे हैं।
2021 में गणपति बुक सेंटर, गाजियाबाद से प्रकाशित इस संग्रह में 112 पृष्ठ हैं और विक्रय मूल्य 80 रुपये है ।
रक्तबीज |
Wednesday, February 16, 2022
तर्पण : शिवमूर्ति
उपन्यास : तर्पण
उपन्यासकार : शिवमूर्ति
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली ।
मूल्य : 150/-
पृष्ठ संख्या : 114
आवरण चित्र : डॉ लाल रत्नाकर
तर्पण भारतीय समाज में सहस्त्राब्दियों से शोषित, दलित और उत्पीड़ित
समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है । इसमें एक तरफ कई कई हजार वर्षों के दुख
अभाव और अत्याचार का सनातन यथार्थ है तो दूसरी तरफ दलित चेतना के स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति
की वास्तविकता ।
इस नई वास्तविकता के मानदंड भी नए हैं, पैंतरे भी नए हैं
और अवक्षेपण भी नए हैं।
तर्पण कथा :
मुख्य कथा वर्ण-संघर्ष-सवर्ण बनाम दलित की
है जिसका आरंभ दो परिवारों- धरमू पंडित बनाम पियारे चमार के संघर्ष से होता है ।
गाँव के अधिसंख्यक दलित पियारे सहित सवर्णों के खेतों में मजदूरी करते रहे हैं और
पिछले दिनों मजदूरी बढ़ाने का सफल आंदोलन कर चुके हैं। अतः वर्ग-संघर्ष मुख्य कथा
की पृष्ठभूमि में है । उपन्यास के पात्रों के व्यवहार में इसकी सफलता- असफलता की
प्रतिक्रिया भी झलकती है ।
पियारे की विवाहित बेटी रजपतिया घात लगाए
बैठे धरमू पंडित के बेटे चंदर द्वारा मटर के खेत में पकड़ ली जाती है- आरोप मटर की
चोरी का है- नीयत बदमाशी की है जिसके बारे में आगे चलकर पंडिताइन का कहना है कि यह
नीयत वंशानुगत है और जिसके बारे में यह स्थापित है कि ‘चंदरवा का चरित्तर
तो अब तक दो तीन बच्चों की माँ बन चुकी गाँव की लड़कियाँ तब से बखानती आ रही हैं
जब वह इन बातों का मतलब भी ठीक से समझने लायक नहीं हुई थी।’ पकड़ी गई रजपतिया
के प्रतिकार से प्रथमतः चंदर का अहं आहत होता है ‘नान्हों की छोकरियाँ’ खबरदार बोलना कब
से सीख गई ? फिर
परेमा की माई, मिस्त्री
बहू व रजपतिया की संयुक्त शक्ति से भयभीत हो भाग छूटता चंदर पुरूषोत्तम अग्रवाल की
‘बिल्ली
और कबूतर’ कविता
की याद दिलाता है जिसमें कबूतर की खुली आँख की तेज चमक से बिल्ली घबरा जाती है, चकरा जाती है ।
यह मामूली सी और लगभग स्वीकार्य समझी जाने
वाली घटना दलितों की अब तक की संचित पीड़ा को विस्फोटक क्रोध में बदल देती है । दलित
सामाजिक कार्यकर्ता भाईजी की अगुवाई में दलित युवा पीढ़ी रजपतिया के साथ हुई
छेड़छाड़ को बलात्कार की शिकायत में तब्दील कर थाने में दर्ज कराने पर आमादा है
क्योंकि भाईजी के मुताबिक ‘366
बटा 511
दर्ज हुई तो इन्क्वायरी अफसर उसे गिराकर 354 पर ले आएगा अतः
चंदर को सजा दिलाने के लिए 376
लगाना जरूरी है इसलिए स्ट्रेटेजी बनाना होगा, लिखाना होगा-रेप
हुआ है।’
पियारे की असहमति; जो कि असत्य भाषण
के संभावित पाय जन्मी है और रजपतिया,
रजपतिया की माँ-यानी स्त्री की राय जाने बगैर
बलात्कार की शिकायत दर्ज होती है- इस संदर्भ में आगे चलकर हरिजन एक्ट का इस्तेमाल
किया जाता है ।
धरमू पंडित के पास पैसा है, ऊँचे रसूख हैं, दलित उभार से आहत
अहं है तो दलित समुदाय के पास चंदे का,
दलित एम.एल.ए. का, रजपतिया से जबरन दिलवाए गए झूठे बयान का
सहारा है । पंडित-पुत्र चंदर महाशय रिश्वत के बल पर पहली बार थाने से छूटकर घर आते
हैं तो विजय-दर्प में कंधे पर बंदूक टांगकर चमरौटी के तीन चक्कर लगाते हैं ।
भाईजी की कोशिशों से चंदर की फिर गिरफ्तारी
होती है तो उसके डेढ़ महीने के जेल-वास के उपलक्ष्य में चमरौटी में सूअर कटता है, दारू चलती है-
झमाझम नाच होता है जिसके चलते रजपतिया के भाई मुन्ना पर हजार रूपये का कर्ज हो
जाता है । पंडित पार्टी महँगा वकील खड़ा करती है तो दलित पार्टी भी पीछे नहीं ।
कुल मिलाकर दोनों तरफ नीति नहीं-सिर्फ रणनीति है ।
चूंकि बलात्कार की रिपोर्ट झूठी है और सी.ओ.
ठाकुर हैं, चंदर
की माता श्री पंडिताइन द्वारा प्रति पचास रू. खरीदी गई निजी हलवाहिन लवंगलता व
उसकी बटन कौरह के झूठे बयान हैं;
अतः अन्ततः चंदर बरी हो जाता है पर प्रतिशोध भावना
से बरी नहीं है सो बंदूक से हवाई फायर करने,
भाईजी को डराने के इरादे से निकलता है पर बदले में
मुन्ना के हाथों नाक कटा बैठता है ।
इस घटना का न कोई गवाह है न कोई नामजद आरोपी, शक जरूर मुन्ना
पर है । ऐसे में मुन्ना का पिता पियारे स्वयं को आरोपी के रूप में अपने वकील को से
यह कहकर गिरफ्तार करवाता है कि ‘यह
सही है कि मैंने नहीं मारा पर मन ही मन न जाने कितनी बार मारा है । अब जब बिना
मारे ही ‘जस’ लेने का मौका मिल
रहा है तो आप कहते हैं इंकार कर दूँ ?
मेरी बात:
‘तर्पण’ मात्र 114 पेज का उपन्यास है लेकिन सदियों का दर्द अपने अंदर समेटे और आने वाली सदियों का डर अपने अंदर समेटे हुए।
जहां एक तरफ राजपति, पियारे और विक्रम का व्यवस्था के प्रति मानसिक और शारीरिक विद्रोह है तो दूसरी तरफ धरमू पंडित, चंदर की सामाजिक श्रेष्ठता को बरकरार रखने की जद्दोजहद का भी बेबाकी से चित्रण है।
इनके बीच में भाई जी जैसे चरित्र जो पुरानी व्वयस्था को उखाड़ कर एक नई व्यवस्था स्थापित करने को बेकरार हैं जिसमें खुद को प्रासंगिक साबित किया जा सके।
शिव मूर्ति जी ने शोषित और शोषक के बदलते समीकरणों का तटस्थ और ईमानदारी से चित्रण किया है ।
हालांकि ‘तर्पण’ शिवमूर्ति का दूसरा ही उपन्यास है लेकिन इतना कम लिखकर भी उन्हें जबर्दस्त ख्याति मिली है जो किसी विरले लेखक के नसीब में होती है ।
तर्पण में नब्बे के दशक के उपरान्त ग्रामीण जनजीवन-स्थितियों के सहारे हमारे समाज के ज्वलंत सच को रेखांकित किया गया है। इस उपन्यास में सदियों से पोषित हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से जुड़ी मानसिकता के विरोधी स्वरों के तानों-बानों से पूरा औपन्यासिक ढ़ांचा खड़ा किया गया है।
शिवमूर्ति का तीसरा उपन्यास ‘‘आखीरी छलांग’’ किसान जवीन के त्रासदी को जिस मार्मिकता से उभारती है, वो पाठक को किसान जीवन के दर्द से सीधे लेजाकर जोड़ देती है।
शिवमूर्ति का प्रत्येक उपन्यास अपने समय-समाज से संवाद करता हुआ अपने समकाल को रचता है तथा अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करता है। शिवमूर्ति का कथासाहित्य अपने औपन्यासिक ढ़ांचे में हमारे समय-समाज के परस्पर अंतर्विरोधी स्वरों को उसकी संश्लिष्टता में रखते हुए हमारे समय-समाज के करीब लाता है।
‘तर्पण’ अपने समय-समाज के संकटों-जातिवाद, धार्मिक, कट्टरतावाद, संप्रदायवाद, वर्चस्ववाद आदि का प्रत्याखान करता हुआ हमें यह सोचने को विवश करता है कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है। यही इन उपन्यासों की सार्थकता भी है ।
Monday, February 14, 2022
प्रेत लेखन : योगेश मित्तल
पुस्तक : प्रेत लेखन (हिन्दी पल्प फिक्शन में प्रेत लेखन का नंगा सच)
लेखक : योगेश मित्तल
प्रकाशक : नीलम जासूस कार्यालय, रोहिणी, दिल्ली
MRP : 275/-
Amazon link : प्रेत लेखन
प्रेत लेखन |
‘हिन्दी पल्प फिक्शन में प्रेत लेखन का नंगा सच’ या संक्षेप में ‘प्रेत लेखन’ श्री योगेश मित्तल द्वारा लिखी गई अपने आप में एक अनूठी किताब है जिसे नीलम जासूस कार्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया है।
योगेश मित्तल जी ने अपनी ज़िंदगी के गुजरे दिनों को याद करते हुए, आत्मकथात्मक अंदाज में, 1963 के आसपास का समय अपनी पुस्तक में शुरू से लिया है और अपने लेखकीय जीवन की यादों को एक सूत्र में पिरोया है ।
योगेश मित्तल |
जहां तक मैं समझ पाया हूँ कि हिन्द पॉकेट बुक्स से कर्नल रंजीत के नाम से उपन्यास निकले और उनकी सफलता ने सभी प्रकाशकों को ध्यान खीचा । जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा और श्री वेद प्रकाश कम्बोज के नाम से नकली लेखन शायद उस वक्त उनकी प्रसिद्धि को दर्शाता है । लेकिन इस प्रेत लेखन का खामियाजा आखिरकार उन्हें भी भुगतना पड़ा ।
योगेश मित्तल जी का रुझान इस प्रेत लेखन में क्यों था या वो इसे कैसे स्वीकार कर पाये – इस बात का जवाब हमें उन्हीं के जुबानी मिलता है – “मैं खामोश रह गया तथा यही सोचा – ‘सामाजिक और जासूसी उपन्यासों में अगर नाम नहीं छपता, न छपे। पैसे तो मिल रहें हैं । नाम के लिए कभी कुछ साहित्यिक लिखेंगे।’
इस किताब की नीव या शुरुआत फ़ेसबुक पर ‘राजभारती के फ़ैन’ पेज पर साझा किए गए संस्मरणों से हुई थी जो लोगों को बहुत पसंद आए थे । जिसे मैंने भी पढ़ा था । उसी वक्त इन संस्मरणों को एक किताब के रूप छापने की मांग शुरू हो गई थी जिसे आखिरकार नीलम जासूस कार्यालय ने साकार किया ।
पुस्तक की शुरुआत में लगभग पचास पेज में भूमिका/ प्रशस्ति लेखन है जिसे कम किया जा सकता था । यही पेज योगेश मित्तल जी को दिये जा सकते थे जिसमें वे अपनी यादों को थोड़ा और विस्तार दे सकते थे जिससे पढ़ने वालों को शायद ज्यादा लुत्फ आता । अंत में ऐसा लगता है जैसे किताब को जल्दी समेट दिया गया हो ।
इस सबके बावजूद ‘प्रेत लेखन’ एक संग्रहणीय पुस्तक है जिसे लोकप्रिय साहित्य को चाहने वाला अपने पास जरूर रखना चाहेगा ।
Friday, February 4, 2022
मृत्युंजय - शिवाजी सावन्त (समीक्षा - डॉ वसुधा मिश्रा)
पात्र को ,घर कर गया कर्ण का चरित्र उनके मन मस्तिष्क पर , इतनी गहरी नींव पड़ी उसकी कि उसी नींव पर एक विशाल ,महान इमारत खड़ी की उन्होंने जिसको आज तक कोई हिला नही पाया ...
Sholay: The Making of Classic : Anupama Chopra
Book : Sholay - The Making of Classic Written by: Anupma Chopra Publication : Penguin Random House Books, India Price : 299/- Pages : 194 IS...
-
वेद प्रकाश शर्मा जी का जन्म 10 जून 1955 को हुआ था।आग के बेटे उनका प्रथम उपन्यास था जिसके मुखपृष्ठ पर वेद प्रकाश शर्मा का पूरा न...
-
अनिल मोहन जी हिंदी उपन्यास जगत के एक लोकप्रिय उपन्यासकार हैं, जिनकी लेखनी से अनगिनत उपन्यास निकले हैं । उनके उपन्यास मुख्यतः देवराज चौहान और...