Sunday, December 25, 2022

Chausar : Jitender Nath : Reviews

उपन्यास : चौसर- द गेम ऑफ डेथ
लेखक : जितेन्द्र नाथ
प्रकाशक : बूकेमिस्ट/सूरज पॉकेट बुक्स
अवेलेबल : Sooraj books link chausar
Amazon link चौसर
फ्लिपकार्ट link Chausar
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Reviews by Readers/Authors
चौसर - दि गेम ऑफ डेथ
जितेंद्र भाई का पहला उपन्यास राख पढ़ने के बाद से ही प्रतीक्षा थी उनकी अगली रचना की ,बल्कि उत्कंठा अधिक थी के क्या और कैसा कथानक लेकर आएंगे।
और फिर हाथ मे आया "चौसर " और 
जो पढ़ना शुरू किया तो राजनीति की बिसात पर बिछी रोचक और रोमांचक कहानी के बीच जिसमे जबरदस्त उतार चढ़ाव और तेज रफ्तार घटनाक्रम के बीच  कहानी में जहां राजनीति और औद्योगिक घरानों के बीच संबंधों और फिर उनसे पनपने वाले आतंक के रिश्तो की हकीकत से रूबरू करवाया उसके लिए निसंदेह आपने गजब का होमवर्क किया ।
          उपन्यास पढ़ते हुए कहानी के पात्र हमें हमारे देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप ही लगते हैं जिनसे की पाठक तुरंत ही अपना तारतम्य स्थापित भी कर लेता है इससे कहानी में विश्वसनीयता के साथ-साथ पठनीयता का गुण भी  समावेश हो गया है । हालांकि कहानी का  ताना-बाना काफी घुमाव  लिए हुए हैं, लेकिन इन सब का समापन और उपसंहार  भी उतने ही सुघड़ , सुंदर और अच्छे तरीके से किया गया है , की उपन्यास अपनी छाप छोड़ जाता है ।
सच है आज भी हमारे देश कि जो हिफाजत सरहद पर हमारे सैनिक कर रहे हैं उनकी हमारे ही कुछ राजनेताओं को रत्ती भर भी फिक्र नहीं है । वह तो अपनी ओछी  राजनीति में ही उलझे रहते हैं , परन्तु जैसे के  आपने लिखा " देश की रक्षा के लिए शहीद होना ही हर सैनिक का परम लक्ष्य होता है " बिल्कुल सटीक पंक्तियां है  जो कि दिल को भीतर तक छू जाती है और मन में एक ही आवाज गूंजती है --जय हिंद -जय भारत ।
वर्तमान में आ रहे विभिन्न उपन्यासों के बीच बिछी कहानियों की बिसात  पर आपका यह उपन्यास शत प्रतिशत विजयी घोषित होता है। बहुत-बहुत बधाई , और  आगामी रचना के लिए भी शुभकामनाएं , जो की उम्मीद है जल्दी हमारे पास आएगी।
21.12 2022
आपका प्रशंसक
विशाल भारद्वाज
पोस्ट मास्टर
प्रधान डाकघर
श्री गंगानगर -335001
राजस्थान
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
संजीव शर्मा जी, सीनियर एडवोकेट, पुणे की कलम से....                                                  चौसर by जितेंद्रनाथ
बहुत दिनों बाद ऐसी किताब पढ़ी, जिसने पहले पेज की पहली लाइन से ही कहानी में इंटरेस्ट जगा दिया जो अंत तक जारी रहा. कहानी की सबसे बड़ी खूबी कहानी के पात्रों का शानदार चरित्र चित्रण है, हर पात्र को बहुत ही खूबी से लिखा गया है जिसके कारण वो याद रहते हैं चाहे वो अभिजीत देवल, राजीव, सुधाकर, नैना, नागेश, यासिर खान, आलोक देसाई या फिर योगराज, बसंत पवार, दिलावर, अब्बासी हो या राहुल तात्या, सभी कैरेक्टर का चरित्र चित्रण बहुत बढ़िया तरीके से हुआ है, जिसके लिए जितेंद्रनाथ जी बधाई के पात्र हैं.
     कथानक जो आतंकवाद पर आधारित है जो बेहद कसा हुआ है और कहीं भी बोर नहीं करता है, एक्शन भी जबरदस्त है जो कहानी के अनुरूप है सस्पेंस भी अच्छा रहा, एक बेहद विस्तृत कथानक को इतनी आसानी से, अच्छी भाषा, अच्छे शब्दों में लिख कर जितेंद्रनाथ जी ने साबित किया कि उनमें एक सफल लेखक बनने के सभी गुण मौजूद हैं जो हम पाठकों का लंबे समय तक मनोरंजन करेंगे. 
    चौसर निसंदेह एक शानदार, जबरदस्त किताब है जो लंबे समय तक याद रहेगी.
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
हीरा वर्मा जी की कलम से...
उपन्यास : चौसर - द गेम ऑफ डेथ
लेखक : जितेंद्र नाथ सर जी
प्रकाशन : सूरज पॉकेट बुक्स
पृष्ठ संख्या : 279
मूल्य : 360₹

बुकेमिस्ट के द्वारा शानदार कवर डिजाइन और किताब का नाम किसी भी पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने से रोक न पाएगी।

लेखक सर की ये तीसरी किताब पढ़ रहा हूँ मैं "चौसर - द गेम ऑफ डेथ"
इसके पहले पढ़ी थी "राख" जो उनके द्वारा लेखन पर पकड़ दर्शायी थी जो कामयाब भी रही

उसी से आकर्षित हो कर ये पढ़ने बैठा

One word : लाजवाब

 *ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम...*
द हार्ट टचिंग लाइन
दीदार सिंह के लिए तो वाह वाह  ही है
आंखे नम कर गए साहब

क्यो ? ये पढ़ के जानिएगा

कहानी शुरू होती है "पर्ल रेसिडेंसी" के होटल से जहाँ "विस्टा टेक्नोलॉजी" के 15 लोग 7 दिन की कॉन्फ्रेंस के लिए आये थे जिन्हें "सिग्मा ट्रेवल्स" की बस अपडाउन करती थी होटल से ऑफिस।

सारे गायब

क्यो ?

का जवाब तो पढ़ के ही मिलेगा

संवाद ने जीवंत बनाये रखा है दृश्य को जेहन में क्योकि चौसर में हार जीत लगी होती है , वही यहां पुलिस की मुठभेड़ ने ताज होटल याद दिला दिया साहब

बोले इसे ले कर और पढ़ कर आप कतई न पछतायेंगे फुलटू पैसा वसूल उपन्यास है।
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
[12/4, 5:23 PM] Jitender Nath: ('चौसर' एक शानदार उपन्यास ) 
जब मैं किसी उपन्यास को शानदार कहता हूं तो मेरे शब्दों में उसका अर्थ होता है कि उपन्यास की कहानी ने  एक समां बांध कर रख दिया, अंत वास्तव में बहुत अच्छा है, संवाद अच्छे हैं...
एक बानगी पढ़िए..
 (राजनीतिक एक चौसर का खेल है .........। जो खेल हम खेल रहे हैं वह हमारी जिंदगी की एक नई बाजी है । इस खेल में पासे चाहे कैसे भी पड़ें लेकिन हम लोगों को उम्मीद हमेशा जीत की होती है)
पुलिस की मुठभेड़ कई जगहों पर काफी जीवंत जान पड़ती है, मुठभेड़ के सारे सीन काफी मेहनत से लिखे गए हैं.... मजा आता है पढ़कर, 🥳🥳
जितेंद्र नाथ जी की यह रचना 'पैसा वसूल' है,
Deepankar Shashtri ji
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
मित्र एवं लेखक जितेन्द्र नाथ जी की “चौसर” पढ़ी गई । 📖
बहुत ख़ूब! इतने बड़े स्तर के कथानक को जिस सलीके के साथ (कम पृष्ठों में भी) पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है,काबिले तारीफ़ है । 🙏
पुनश्च- अंतिम पृष्ठों तक बाँधे रखने और आँखें नम कर देने वाले लेखन के लिए लेखक महोदय को बधाई । 🌹
आबिद बेग जी 👆
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
नोवल - चौसर
लेखक - जितेंद्र नाथ
प्रकाशक - सूरज पॉकेट बुक्स
समीक्षक - दिलशाद सिटी ऑफ इविल वाले


अभी अभी जितेंद्र नाथ जी की चौसर पढ़कर पूरी की। इससे पहले मैने उनकी राख पढ़ी जिसने शानदार छाप छोड़ी थी। राख में पुलिस कार्यप्रणाली का सजीव रूप प्रतीत हुआ। चलिए बात करते हैं चौसर की, जिसकी कहानी शुरू होती है होटल पर्ल रेसीडेंसी से, रिसेप्शन पर रात के साढ़े नो बजे फोन बजता है। उधर से एक व्यक्ति अपने बेटे के बारे में पूछता है की क्या मेरा बेटा होटल पहुंच गया। सुबह को ज्ञात होता है कि विष्टा टेक्नोलोजी के पंद्रह एंप्लॉज जो पर्ल रेसीडेंसी में ठहरे थे अभी तक नही आए। ड्राइवर सहित सभी एंप्लॉयज के नंबर बंद जा रहे थे। सूचना पुलिस को दी जाती है। सिग्मा ट्रेवलर्स के दफ्तर से बस की आखिरी लोकेशन का पता चलता है। बस को घेर लिया जाता है लेकिन उसमे अजनबी ड्राइवर निकलता है। अब सभी का दिमाग चकरा जाता है की सभी यात्री कहां गए और ड्राइवर क्यों बदला।
अगली सुबह एक नदी में एक एंप्लॉय की लाश मिलती है।  एक दृश्य में 26 ग्यारह की याद ताजा हो जाती है। जब आतंकवादी एक होटल में हतियारो को गरजाते हुए हुए घुसते हैं। बेहद ही लाइव दृश्य महसूस होता है। आपको नोवल में अनेकों सवाल मिलेंगे जैसे...
बस अपने गंतव्य तक क्यों नही पहुंची?
जो ड्राइवर पकड़ा गया था वह खाली बस लेकर क्यों जा रहा था?
क्या एम्प्लेयर्स मिल सके?
किसका हाथ था एंप्लायस के गायब कराने के पीछे?
कहानी एक्शन पैड है। देशभक्ति से लबरेज है। देश की सुरक्षा दांव पर लगी है। देश के वीर, जांबाज, जान को जोखिम में रखने वाले हीरो इस मिशन में कूद पड़ते हैं। जैसा कि बताया है कहानी एक्शन पैड, सस्पेंस और देशभक्ति समेटे हुए हैं तो दिमागी मनोरंजन की आशा न करें। कहीं कहीं डायलॉग शानदार और जबरदस्त हैं। देश की सुरक्षा के लिए हमारे वीर क्या कर गुजरते हैं इस नोवल में दिखाया गया है। किरदारों में सुधाकर नागेश धनंजय राय, राजीव जयराम, आलोक देसाई, नैना दलवी, शाहिद रिज्वी, नागेश कदम, मिलिंद राणे जैसे हीरो थे। लेखक ने शानदार मराठी भाषा का भी प्रयोग किया है। 
एक शानदार डायलॉग जब श्रीकांत सुधाकर से पूछता है, "कैसे हो अब तुम? ज्यादा चोटें तो नही आईं?
तब सुधाकर बुलंद आवाज में कहता है, "ये चोटें तो हमारे शरीर का गहना है सर। जितनी बढ़ेंगी उतना ही मजा आयेगा।"
विदा लेता हूं आपसे फिर मुलाकात होगी, जितंद्रनाथ जी को ढेरों शुभकामनाएं।
 दिलशाद अली
★★★★★★★ ★★★★★★★★★★★★★★★

श्री मनेंद्र त्रिपाठी की कलम से चौसर के बारे में राय। हार्दिक आभार आपका मनेंद्र जी 💐💐💐
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"राख" के बाद लेखक का दूसरा शानदार कारनामा । वैसे भी जहां राख होती है वहां संभावी अगला काम होता है "गर्दा उड़ना' । लेखनी के इस फेरहिस्त में शामिल है "चौसर" जो इस धारणा के "गर्दे" उड़ा देती है कि कोई उपन्यास क्या एक्शन थ्रिलर हो सकती है ? जी हां हो सकती है ।

एक्शन, जिसको सिर्फ बड़े परदे पर ही महसूस किया जा सकता है, इस मिथक को बड़े ही आसानी से लेखक साहब ने जब्त कर के निर्माण किया है "चौसर"का । इस उपन्यास को पढ़ने के बाद आप अपनी भुजाएं फड़कती हुई महसूस करें तो कोई ताज्जुब नहीं । थ्रिलर और एक्शन का अनुपम मिश्रण महसूस करने के लिए इस उपन्यास को पढ़ें ।

कहानी बिल्कुल फ्रेश है । एक कंपनी की एक गाड़ी जिसमे कंपनी के बहुत से कर्मचारी अपनी छुट्टियां बिताने,तफरीह के वास्ते सवार होते है । अगले दिन गाड़ी के साथ साथ सभी कर्मचारी 'अंतर्ध्यान ' हो जाते हैं । बस यही से शुरू होता है एक्शन पैक्ड रोमांच । उपन्यास के हर पेज पर आपके रोमांच की सीमा बढ़ती चली जायेगी । बस आपको एक काम करना है कि इस उपन्यास को ध्यान से पढ़ना है क्योंकि इस उपन्यास में पात्र चरित्र थोड़े ज्यादा है इसलिए आपको कहानी के साथ साथ चलना है । देशभक्ति, राजनीति, षड्यंत्र,मजबूरी,कूटीनिति, शठे शाठ्यम समाचरेत् ,आदि अनेक विधाओं से गुजरते हुए यह उपन्यास आपको नम आंखों के साथ बहुत कुछ सोचने समझने के लिए छोड़कर तृप्त कर देगा ।


अगर आप प्रचलित श्रेणी के थ्रिलर उपन्यासों से बेजार हो चुके हैं तो आपको मौका है अपने सारे हिसाब बराबर करने का , अभी पढ़ना शुरू कीजिए "चौसर" । उपन्यास समाप्त होते होते अपनी भुजाएं खुद ब खुद फडकती महसूस होंगी। उपन्यासों में 'ट्विस्ट ' खोजने वालों को इस उपन्यास के बाद चाह होगी सिर्फ और सिर्फ रोमांच की ।

लेखक महोदय को इस हाहाकारी शाहकार के लिए अनगिनत धन्यवाद । आपकी आगामी रचना के लिए अभी से इंतजार करता हुआ लेखक का  एक उन्मादी पाठक ।

Saturday, October 8, 2022

Balraj Sahni : Meri filmy atamkatha

पुस्तक  : मेरी फिल्मी आत्मकथा 
लेखक : बलराज साहनी 
सम्पादन : संतोष साहनी 
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स ( इंप्रिंट ऑफ पैंगविन बुक्स)
मूल्य : 199/-
पृष्ठ : 199

हिन्दी सिनेमा में बलराज साहनी को कौन नहीं जानता । बलराज साहनी किसी परिचय के मोहताज भी नहीं है । कौन भूल सकता है फिल्म सीमा का वह गीत जिसमें अपनी आँखों से लाचार किरदार गाता है 'तू प्यार का सागर है' और नूतन को राह दिखाता है । हिन्दी फिल्म के इतिहास में स्वरणक्षरों में दर्ज की गई 'दो बीघा जमीन' का वह मजदूर किसान जिसे बलराज साहनी ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया था, आज भी फिल्मी दीवानों के दिलो दिमाग पर छा जाता है । बलराज साहनी की अन्य महत्वपूर्ण फिल्में है : भाभी, अनपढ़, वक्त, अनुपमा, काबुलीवाला, हँसते जख्म, गरम हवा, पराया धन इत्यादि ।

प्रस्तुत किताब बलराज साहनी का फिल्मी सफरनामा ब्यान करती है जिसका वर्णन बलराज साहनी ने किया है । शायद यह पुस्तक पहले पंजाबी में छपी थी जिसे हिन्दी में बाद में प्रकाशित किया गया है । बलराज साहनी की यह किताब पढ़ना एक तरह से अतीत के सिनेमा की यात्रा करने के समान है । यह पुस्तक अपने समय की एक चर्चित पुस्तक है जिसे सिनेप्रेमियों और साहित्य प्रेमियों ने बड़ा सराहा था । पुस्तक के रूप में छपने से पहले यह किसी अखबार में शायद धारावाहिक के रूप में छपी थी ।

बलराज साहनी के कैरियर की शुरुआत शांतिनिकेतन में अध्यापन के तौर पर शुरू हुई लेकिन मन उनका अभिनय के क्षेत्र में पलायन करने को हमेशा बेताब रहता था । उनकी पहली पत्नी दमयंती, जिसका जिक्र उन्होंने दम्मो के रूप में किया है, उनके साथ शांतिनिकेतन और रेडियो में समान रूप से सक्रिय रहीं । फिल्मों में दमयंती का कैरियर बलराज से पहले शुरू हुआ जिसकी कुंठा का बलराज जी ने बड़ी बेबाकी से वर्णन किया है । इतना बड़ा अभिनेता भी पौरुष दंभ और कुंठा का शिकार रहा जिसे बलराज जी ने ईमानदारी से स्वीकार किया है । 

'मेरा कर्तव्य था कि उस समय अपनी पत्नी की ढाल बनता, उसके कलात्मक जीवन की कद्र करता, रक्षा करता, उसे फिज़ूल के झमेलों से बचाता और पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर लेता । पर मैं अपनी संकीर्णता के कारण मन ही मन दम्मो की प्रसिद्धि से ईर्ष्या करने लगा था । वह स्टूडिओसे थकी हारी हुई आती तो मैं उससे ऐसा सलूक करता जैसे वह कोई गलती करके आई हो । मैं चाहता कि वह आते ही घर के काम-काज में लग जाये जोकि मेरी नजर में उसका असली काम था । अपने बड़प्पन का दिखावा करने के लिए मैं इप्टा और कम्यूनिस्ट पार्टी के अनावश्यक काम भी करने लग जाता था..... बेचारी बिना किसी शिकायत के वह सारा भार उठाती गई जिसे उठाने का उसमें सामर्थ्य नहीं था । इन बातों को याद करके मेरे दिल में टीस उठती है । दम्मो एक अमूल्य हीरा थी जो उसके माता-पिता ने एक ऐसे व्यक्ति को सौंप दिया था जिसके दिल में न उसकी कोई कद्र थी, न ही कोई कृतज्ञता का भाव था । (पेज 127) 

बलराज साहनी ने सपत्नीक बीबीसी लंदन में काम किया और उस वक्त के जीवन और बेफिक्री का, जिसे हम भौतिक सुख-सुविधा का आभा मण्डल कह सकते हैं, बड़े विस्तार से वर्णन किया है । उस वक्त सिनेमा का विकास हो रहा था और विश्व में साहित्य को सिनेमा के पर्दे पर उतारा जा रहा था । उनके मन पर उस वक्त की एक रूसी फिल्म 'सर्कस' का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा । उस वक्त की रूसी फिल्मों के प्रभाव के कारण वे कम्यूनिस्ट विचारधारा की तरफ मुड गए ।

'इस तरह सोवियत यूनियन, मार्क्सवाद और लेनिनवाद से मेरी पहचान फिल्मों के द्वारा हुई । मैं उस देश को जानने के लिए उत्सुक हो गया जो इतनी अच्छी फिल्में बनाता था ... मार्क्सवाद के बारे में पढ़ते हुए मुझे रजनी पामदत्त और कृष्ण मेनन का पता चला । मुझे समझ आने लगा कि महायुद्ध क्यों होता है ? (पेज 38)

आज हम बलराज साहनी को एक महान अभिनेता के तौर पर जानते हैं । अभिनय के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने से पहले उन्हें अपनी जड़ता की बेड़ियाँ तोड़ने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा । इसके लिए चरित्र अभिनेता डेविड के साथ बलराज साहनी का संस्मरण एक अभिनेता के रूप में उनकी बेचैनी को दर्शाता है । 'हम लोग' की सफलता से पहले इस जड़ता ने उनका पीछा नहीं छोड़ा । महान फ़िल्मकार के आसिफ की फिल्म 'हलचल' के वक्त का अनुभव वे कुछ यूं दर्ज करते हैं : 

'कैमरे के सामने जाना मुझे सूली पर चढ़ने के बराबर लगता था । मैं अपने आपको संभालने की बहुत कोशिश करता । कई बार रिहर्सल भी अच्छी भली कर जाता ।  सभी मेरी हिम्मत बढ़ाते । पर शॉट के एन बीच में मुझे पता नहीं क्या हो जाता कि मुझे अपने अंग अंग जकड़ा हुआ लगता...' पेज 150  

'मेरी फिल्मी आत्मकथा' अभिनय के शिखर पर पहुंचे हुए एक महान अभिनेता के फिल्मी अनुभव है जिसे बड़ी ईमानदारी के साथ लिखा गया है । लेखन शैली के हिसाब से यह संस्मरणात्मक पुस्तक बेजौड़ है और साहित्य में एक अलग स्थान रखती है । फिल्मों से प्रेम करने वाला व्यक्ति इसे अवश्य ही पढ़ना चाहेगा लेकिन प्रकाशन की हल्की गुणवत्ता पाठकों को निराश करती है ।

पुस्तक की क्वालिटी के कड़वे अनुभव : 

बलराज साहनी की यह किताब बड़े चाव से मंगवाई थी। इस किताब के साथ बड़े प्रकाशन 'पेंगुइन' का नाम जुड़ा है लेकिन किताब में इतनी गलतियां है कि सारा मजा किरकिरा हो गया। प्रूफ रीडिंग बहुत ही निचले स्तर की है... या यूं कहिए कि स्तर है ही नहीं
आप भी गौर कीजिए...
इतनी शानदार आत्मकथा का दोयम दर्जे का प्रस्तुतिकरण दिल को दुखा गया। 
आलम आरा मूवी को सभी भारतीय जानते हैं और बलराज साहनी उसको गलत नहीं लिख सकते। जिन पृष्ठों को मैंने शेयर किया है, उसमें आप पालम पारा... पालम आरा छपा हुआ देख सकते हैं। पी सी बरुआ अपने समय के दिग्गज निर्देशक थे। पर पेज नंबर 31पर बरुणा, बरुमा, बरूपा लिखा हुआ है मजाल है कहीं बरुआ छापने की जहमत उठाई हो। संगीत निर्देशक आर सी बोराल को पार सी बोराल लिखा गया है। बलराज साहनी चाहे किसी भी भाषा में लिखें लेकिन उन जैसा जहीन कलाकार ऐसी गलती नहीं करेगा। यह सरासर प्रकाशन में हुई लापरवाही है। हर पेज पर यही हाल है।
पुस्तक का प्रस्तुतुकरण भी बेहद बचकाना है । आवरण पृष्ठ के लिए ब्ल्राज साहनी के चित्र निराश करता है । यकीनन बलराज साहनी के इससे श्रेष्ठ छाया चित्र उपलब्ध होंगे । पैंगविन और हिन्द पॉकेट बुक्स के बड़े नाम जुड़े होने के बावजूद पुस्तक का प्रस्तुतुकरण निराश करता है ।
         © जितेन्द्र नाथ 

मेरी फिल्मी आत्मकथा : बलराज साहनी 

त्रुटियों की भरमार 
घटिया स्तर की प्रूफ रीडिंग
गलतियाँ ही गलतियाँ 

Wednesday, September 28, 2022

Janpriya Lekhak Om Parkash Sharma : Andhere ke Deep : A Novel

 

जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा : अंधेरे के दीप : एक प्रासंगिक व्यंग्य

उपन्यास : अंधेरे के दीप 

लेखक : जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : नीलम जासूस कार्यालय, रोहिणी, दिल्ली - 110085

ISBN : 978-93-91411-89-3

पृष्ठ संख्या : 174

मूल्य : 200/-

आवरण सज्जा : सुबोध भारतीय ग्राफिक्स, दिल्ली  

AMAZON LINK :अँधेरे के दीप

अंधेरे के दीप

जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा मुख्यतः अपने जासूसी उपन्यासों और पात्रों के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनके द्वारा कई ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास भी लिखे गए हैं जिनकी विस्तृत चर्चा शायद किसी माध्यम या प्लेटफॉर्म पर नहीं हुई । पाठक वर्ग पर उनके जासूसी किरदारों का तिलिस्म इस कदर हावी हुआ कि उनके द्वारा रचा गया 'खालिस साहित्य' नैपथ्य में चला गया ।

नीलम जासूस कार्यालय द्वारा जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा जी के पुनःप्रकाशित उपन्यास 'अंधेरे के दीप' को 'सत्य-ओम श्रंखला' के अंतर्गत मुद्रित किया गया है । 'सत्य-ओम श्रंखला' को नीलम जासूस कार्यालय के संस्थापक स्वर्गीय सत्यपाल जी  और श्री ओम प्रकाश शर्मा जी की याद में शुरू किया गया है ।

लाला छदम्मी लाल 'अंधेरे के दीप' के नायक हैं या यू कहिए कि यह उपन्यास उनको केंद्रीय पात्र बनाकर लिखा गया है । अपने केंद्रीय पात्र के बारे में ओम प्रकाश शर्मा जी कुछ यूं लिखते हैं : 'उस कारीगर ने विषय वस्तु का तो ध्यान रखा लेकिन रूप के बारे में वह वर्तमान हिन्दी कवियों की भांति प्र्योगवादी ही रहा .... रंग के बारे में भी गड़बड़ रही । उस दिन जब कि लाला के ढांचे पर रोगन किया जाने वाला था, हिंदुस्तान के इन्सानों को रंगने वाला गेंहुआ पेन्ट आउट ऑफ स्टॉक हो चुका था ...कारीगर ने काला और थोड़ा सा बचा लाल मिलाकर 'डार्क ब्राउन' लाला पर फेर दिया । नौसखिये  प्र्योगवादी कलाकार के कारण हमारे गुलफाम हृदय सेठ जी के होंठ ऐसे हैं मानो किसी सुघड़ कुंवारी कन्या द्वारा छोटे - छोटे उपले थापे गए हों ।'

जैसा ऊपर विवरण दिया गया है उसके हिसाब से आप समझ सकते हैं कि ओम प्रकाश शर्मा जी ने प्रचलित मान्यता के विपरीत एक ऐसा पात्र गढ़ा है जो शारीरिक रूप से सुन्दर नायक की श्रेणी में किसी भी कसौटी के हिसाब से पूरा नहीं उतरता है । लेकिन अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान । जब धन्ना सेठ फकीरचंद के इस लाल को भरपूर दौलत मिली हो तो शारीरिक सुंदरता के सारे नुक्स ढक जाते हैं । एक कहावत हमने सुनी है कि लंगूर के पल्ले हूर । रंभा के साथ लाला छदम्मी लाल का परिणय सूत्र में बंधना भी एक प्रकार का सौदा ही था जिसे लाला फकीरचंद ने अंजाम दिया । अब लाला छदम्मी के पास रंभा के रूप में खजाना होते हुए भी 'अंधेरे के दीप' के नायक छदम्मी के हाथ फूटी कौड़ी नहीं ! 

इसी कहानी में लाला छदम्मी के किस्से के साथ नवाब नब्बन और मैना का किस्सा है । जिसमें शायराना तबीयत का नवाब मैना के लिए दलाल का काम करता है । घूरे गोसाईं और गूदड़मल के राजनीतिक दावपेंच हैं । सुंदरलाल भी मौजूद है जो नाम के अनुरूप है पर है कड़का । प्रेम नाम का एक आदर्शवादी पात्र भी है जो नब्बन को वह इज्जत देता है जिसका वह स्वयं को पात्र नहीं समझता है । 

इस कहानी में ओम प्रकाश शर्मा जी ने राजनीति का बड़ा चुटीला और व्यंग्यात्मक विश्लेषण किया है ।एक पाठक के रूप में यह उपन्यास पढ़कर मैं अपने आप को चकित और मंत्रमुग्ध पाता हूँ । इसका एक कारण है इसके प्रासंगिकता । गूदड़मल  और गोसाईं के राजनीतिक दावपेंच आपको कहीं से भी पुराने नहीं लगेंगे । मुझे ऐसा लगा जैसे वे आज हो रही घटनाओं का सटीक विवरण लिख रहें हैं । स्वामी घसीटानन्द का प्रकरण इस बात का सुंदर उदाहरण है । जैसी उखाडपछाड़ जनसंघ और काँग्रेस में पूँजीपतियों को अपने वश में करने के लिए लगातार चलती रहती है उसका भी बड़ा चुटीला वर्णन किया गया है ।

समाज की बहुत बड़ी विद्रूपता 'अंधेरे के दीप' में दिखाई गई है। जो लोग समाज के अग्रणी लोग समझे जाते हैं, वे और उनका तबका किस हद तक नैतिक पतन का शिकार हो चुका है, यह हम सब जानते हैं । आए दिन की अखबार की सुर्खियाँ यह बताने के लिए काफी हैं । रंभा और लाला छ्द्दम्मी उनका प्रतिनिधित्व करते है । जो लोग समाज में दबे हुए है, नैतिकता और समाजिकता का सरोकार भी उन्हीं लोगों को है । मैना और नवाब नब्बन अपने तमाम कार्यों के बाद भी  रंभा और सुंदरलाल के मुकाबले उजले ही प्रतीत होते हैं ।

ओमप्रकाश शर्मा जी की भाषा एक अलग ही आयाम लिए हुए है । कसी हुई, कभी चुभती हुई और कभी गुदगुदाती हुई । ओम प्रकाश शर्मा जी के साहित्य के इंद्रधनुषी रंगों में से एक अलग ही रंग मुझे 'अंधेरे के दीप' में दिखा जो 'रुक जाओ निशा' की गंभीरता से अलग और 'प्रलय की साँझ' की ऐतिहासिकता से अलग है । यह रंग है व्यंग्य के बाणों का ।

मेरी नजर में यह उपन्यास कल भी सफल रहा होगा और आज भी प्रासंगिक है । जो समय की छाप शर्मा जी के कई जासूसी उपन्यासों पर नजर आती है उससे यह उपन्यास अछूता रहा है । अगर कुछ समय के लिए अपने वर्तमान को साथ लेकर अतीत में जाना चाहते हैं तो 'अंधेरे के दीप' अच्छी पसंद हो सकता है जिसमें जिस दिये की लौ अधिक है वह उतना ही काले धुएँ से ग्रसित है और जिस दिये के लौ टिमटिमा रही है वह उतना ही अधिक प्रकाशमान ।

और अंत में दो पंक्तियाँ उपन्यास के मुख्य पृष्ठ के बारे में... अवतार सिंह सन्धू पंजाब के इंकलाबी कवि हुए हैं जिन्हें 'पाश' के नाम से मकबूलियत हासिल हैं और आतंकवाद के दौर में उनकी आवाज को बन्दूक की गोली से शान्त कर दिया गया था। उनकी शख्शियत यानी चित्र को मुख्यपृष्ठ पर इस्तेमाल करना मुझे अखरा। मेरे ख्याल से यह उस क्रांतिकारी कवि के सम्मान में उचित नहीं है।

जितेन्द्र नाथ 

जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा 

 

Thursday, August 25, 2022

5 books in my library

मेरा दुश्मन - कृष्ण बलदेव वैद 
रात की सैर - कृष्ण बलदेव वैद 
सीढ़ियां मां और उसका देवता - भगवानदास मोरवाल 
तीरथराम पत्रकार - बच्चन सिंह 
अदब से मुठभेड़ - ओमा शर्मा 
एक दिन मथुरा में - नरेंद्र कोहली 
श्री सुरेंद्र राणा जी जो हमारे पास ही के जिला सोनीपत से संबंध रखते हैं। सुरेंद्र राणा जी जो जहां एक बेहतरीन पाठक हैं वहीं एक शानदार पुस्तकप्रेमी भी हैं।  उनके माध्यम से कई बार ऐसी पुस्तकें प्राप्त होती हैं जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होती । आज इसी श्रृंखला में मेरी लाइब्रेरी में कुछ अनमोल नगीने शामिल हुए ।
1)कृष्ण बलदेव वैद के दो कहानी संग्रह 'मेरा दुश्मन' और 'रात की सैर' दो खंडों में है जिसमें कृष्ण बलदेव वैद जी की 1951 से 1998 तक की लिखी हुई कहानियां संकलित हैं ।
कृष्ण बलदेव वैद जी का कहानी संग्रह 'मेरा दुश्मन' नेशनल पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित हुआ है जिसमें 47 कहानियां संकलित हैं ।
इस कहानी संकलन में निम्नलिखित कहानियां हैं - बीच का दरवाजा, उड़ान, पवन कुमारी का पहला सांप, जामुन की गुठली, एक बदबूदार गली, एक कुतुबमीनार छोटा सा, लक्ष्मण सिंह, अपना मकान, शंकर, खामोशी, टुकड़े, अगर मैं आज, माई की महिमा, ऋण, बुढ़िया की गठरी, दो आवाज और एक खामोशी, वह मै हम, सब कुछ नहीं, भूत, मुरारीफ फूलवाला और मेम साहब, कबर बिज्जू, रीडिंग रूम, इनकार, अजनबी, अमित, अंधेरे में उपदेश, मरी हुई मछली, अवसर, सुमित्रा के भूत, कोलाज एक और दो, मेरा दुश्मन, मेरा क्या होगा, लापता, शैडोज, त्रिकोण, दूसरे का विस्तर, वह कौन थी, समाधि, विमल काफी हाउस और बुनियादी सवाल, एक था विमल, नीला अंधरा, रात का चीरफाड, आलाप, तीन भूत और इत्यादि कहानियां सम्मिलित हैं ।
दूसरे कहानी संग्रह 'रात की सैर' में कुल 40 कहानियां संकलित हैं । जिसमें बाद मरने के मेरे, दूसरा न कोई, अनात्मालाप, वह और मैं, उसके बयान, चोर दरवाजा, हमसफर, हवा, बू,  गढा, सफलता, आगंतुक, पेड़, चेहरा, जाल, पिछले जन्म की बात है, रात की सैर, भोर का भय, लीला, प्रवास गंगा, उस चीज की तलाश, दूसरे किनारे से, यह काले पर्दे कैसे हैं, आगे देखो फतेहपुरी, भूख कुमारी के साथ एक शाम, उसकी आगोश में, चोरों का चोर, अंधेरे की आत्मा, पुतला, शहर के साथी, चौथी खिड़की, साहिरा, गुंजल का खेल, दो, दूरियां, इबारत, तीन दुस्वप्न, पिता की परछाइयां, रात और एक सफरनामा शामिल हैं ।
2) 'कीरतराम पत्रकार' बच्चन सिंह जी द्वारा लिखित एक उपन्यास है जिसे एक ग्रामीण पत्रकार के जीवन को आधार बनाकर लिखा गया है ।
3) 'अदब से मुठभेड़' ओमा शर्मा जी द्वारा 5 साहित्यकारों के साक्षात्कार का संकलन है जिसमें राजेंद्र यादव, प्रियवंद, मन्नू भंडारी, मकबूल फिदा हुसैन और शिव मूर्ति के साक्षात्कार शामिल हैं ।
4)अगलली पुस्तक 'सीढियाँ, मां और उसका देवता'  भगवान दास मोरवाल जी की लिखी कहानियों का संग्रह है जिसमें 15 कहानियां संकलित हैं ।
5) एक दिन मथुरा में नरेंद्र कोहली जी की कहानियों का संकलन है जिसमें 11 कहानियां संकलित हैं ।
#bookhubb

Tuesday, June 28, 2022

सुबोध भारतीय : हैशटैग : बदलते समाज में उम्मीदों को तलाश करती कहानियाँ

 पुस्तक : हैशटैग – अर्बन स्टोरीज़

लेखक : सुबोध भारतीय

प्रकाशन : सत्यबोध प्रकाशन, सैक्टर 14 विस्तार, रोहिणी

पृष्ठ : 168

मूल्य : 175/-

उपलब्ध : अमेज़न और सत्यबोध प्रकाशन पर उपलब्ध

इस कहानी-संग्रह के लेखक सुबोध भारतीय जी प्रकाशन क्षेत्र में अपने पिता श्री लाला सत्यपाल वार्ष्णेय की विरासत को संभाले हुए दूसरी पीढ़ी के ध्वजवाहक हैं । सुबोध जी नीलम जासूस कार्यालय और उसकी सहयोगी संस्था सत्यबोध प्रकाशन को एक बार फिर से वह मुकाम दिलाने की पुरजोर प्रयास कर रहें है जो नीलम जासूस कार्यालय को लोकप्रिय साहित्य के स्वर्णिम काल में हासिल था । वे अपनी कोशिशों में काफी हद तक कामयाब भी रहें हैं । 2020 के कोरोना काल से अबतक उनके प्रकाशन संस्थान से सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जो उनकी अदम्य जिजीविषा का ही परिणाम है ।

इन सब व्यस्तताओं के बावजूद सुबोध जी का एक साहित्यकार रूप भी सामने आया है । उनके द्वारा लिखी हुई कहानियों का संग्रह #हैशटैग-अर्बन स्टोरीज़, हाल ही में, नीलम जासूस कार्यालय की सहयोगी संस्था, सत्यबोध प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है ।

#हैशटैग : टाइटल पेज

 आजकल, जीवन का ऐसा कोई पल नहीं है जिसमें हम सोशल मीडिया से न जुडें हों । सुबह की शुभकामनाओं से लेकर रात्रि के सोने तक हम इस आभासी संसार से दूर नहीं हैं । सोशल मीडिया में #हैशटैग किसी क्रान्ति से कम नहीं है जो कई प्रकार से सामाजिक सरोकारों से दूर बैठे हुए अंजान लोगों को एक मंच पर लाने का काम करता है  । सुबोध भारतीय जी की किताब का शीर्षक अपने आप में अलग है जो पाठक को पहले ही  आगाह कर देता है कि किस तरह के समाजिक परिवेश की कहानियाँ उसे पढ़ने को मिलने वाली हैं ।

किताब का मुखपृष्ठ साधारण होते हुए भी अपने आप में एक असाधारण कलात्मकता को दर्शाता है । आवरण पर दिखाई गई युवती इस कहानी संग्रह में शामिल #हैशटैग नामक कहानी की नायिका हो सकती है या फिर सुबोध भारतीय जी की कहानी के पात्रों में से कोई भी पात्र, जो अपने जीवन के अँधियारे पलों में से कुछ रोशनी ढूँढने की तमाम कोशिश करते हैं । उस युवती के चेहरे पर परिलक्षित होती रेखाएँ  प्रतीक हैं उन दुविधाओं, परेशानियों और दुख का, जिनसे समाज का हर नागरिक अपने जीवन में कभी न कभी सामना करता है ।

#हैशटैग : अर्बन स्टोरीज़ : बदलते समाज में उम्मीदों को तलाश करती कहानियाँ

आप इस पुस्तक को 8 कहानियों का एक गुलदस्ता कह सकते है जिसमें हर कहानी का रंग अलग है, परिवेश बेशक महनगरीय है लेकिन ये कहानियाँ हर किसी सामाजिक परिवेश का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखती है । इन आठ कहानियों में क्लाइंट, खुशी के हमसफर, शीर्षक कहानी #हैशटैग, बिन बुलाये मेहमान, अहसान का कर्ज, अम्मा, हम न जाएंगे होटल कभी, डाजी : खुशियों का नन्हा फरिश्ता सम्मिलित हैं । हर कहानी शुरुआत से ही एक कौतूहल जगाने में कामयाब होती है जिससे पाठक तुरंत उस कहानी का अंत जानना चाहता है । यही बात इस कहानी संग्रह को कामयाबी प्रदान करती है ।

1. क्लाइंट : यह कहानी महानगरीय जीवन में अकेले रह रहे देव प्रसाद की कहानी है जिसका एक अपना अतीत है । उस अतीत के साये में एकाकी और श्याम-श्वेत जीवन जी रहे देव प्रसाद को एक टेलेफोनिक काल वापिस उम्मीद भरे भविष्य की तरफ खींच लाती है जहां उसके तसव्वुर में फिर रंग बिखरने लगते हैं । सुबोध भारतीय जी ने देव प्रसाद के चरित्र के माध्यम से पुरुष मनोवृति का सटीक चित्रण किया है । इस तरह की मनोदशा से लगभग सभी पुरुष अपने जीवन की किसी न किसी अवस्था गुजरते हैं । किसी नारी का सामीप्य देव प्रसाद की कल्पना के घोड़ों को एक ऐसी उड़ान प्रदान करता है जिसका अंत उसके काल्पनिक भविष्य को चकनाचूर कर देता है । मानवीय मनोविश्लेषण करते हुए सुबोध जी ने इस कहानी को सार्थक परिणति प्रदान की है ।

2.खुशी के हमसफर/ #हैशटैग : लिव-इन रिलेशन महानगरीय जीवन में पनपता एक नया रोग है जिसे समाज में अभी पूर्ण स्वीकार्यता नहीं मिली है । सुबोध भारतीय जी ने अपनी दोनों कहानियों में लिव-इन रिलेशन के दो अलग-अलग पहलुओं को सामने रखा है । खुशी के हमसफर में जहां पर निरुपमा वर्मा और राजेन्द्र तनेजा के बीच में एक दूसरे के प्रति सम्मान और नैतिक समर्पण है जो शारीरिक लिप्साओं से परे है वहीं पर #हैशटैग में नई पीढ़ी की मानसिक और शारीरिक स्वछंदता का चित्रण है जहां पर मानवीय संवेदनाएं जीवन के सबसे निचले पायदान पर है । खुशी के हमसफर बढ़ती उम्र के साथ संतान के अपने माता-पिता से विमुख हो जाने की व्यथा के साथ-साथ जीवन के आखिरी पड़ाव में भी जीवन को सार्थकता प्रदान करने की जद्दोजहद को बखूबी दर्शाती है वहीं #हैशटैग सोशल मीडिया के नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं को इंगित करती है ।

3. बिन बुलाये मेहमान/अहसान का कर्ज़ : इन दोनों ही कहानियों में मेहमानों का चित्रण है । बिन बुलाये मेहमान में आगंतुक किशन और राधा, मोहित के जाने-पहचाने मेहमान हैं, वहीं पर अहसान का कर्ज़ में सुखबीर के घर में मेहमान के तौर पर आने वाले सरदार जी गुरविंदर रहेजा उसके लिए नितांत अजनबी हैकई बार जो लोग हमें किसी बोझ की तरह से लगते हैं वही लोग हमारे जीवन में खुशियाँ भर देते हैं और जिनसे हमें बहुत उम्मीद होती है वो लोग मुश्किल के समय पीठ दिखा जाते हैं । वहीं पर जाने-अनजाने मुश्किल वक्त में किसी को दिया गया सहारे के रूप में रोपा गया बीज वक्त के साथ कई गुना फल देकर जाता है । इन दोनों कहानियां इन दोनों भावनाओं को केंद्र में रख कर आगे बढ़ती हैं ।

4. अम्मा : इस कहानी का ताना-बाना एक अंजान वृद्ध स्त्री और एक परिवार के बीच पनपते स्नेह और  अपने आत्मसमान को बनाए रखने की कहानी है । एक अंजान भिखारिन की तरह जीवन-यापन करती हुई एक वृद्धा अम्मा के रूप में रेणु के परिवार का अभिन्न अंग बन जाती है । विपरीत परिस्थितियों में भी अपने आप को टूटने और बिखरने से बचाने की सीख दे जाती है अम्मा । यह कहानी लेखक के नजरिए से चलती है और अंत सुखद है ।

5. हम न जाएँगे होटल कभी : यह कहानी एक हल्के-फुल्के अंदाज में लिखी गई है । इसे हम हास्य और व्यंग का मिश्रण कह सकते हैं । कहानी एक रोचक अंदाज में लिखी गई है जो इस बात का परिचायक है कि सुबोध जी व्यंग के क्षेत्र में बखूबी अपनी कलम चला सकते हैं । उम्मीद है कि इस विधा में उनकी और भी रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी ।

6. डाज़ी-खुशियों का नन्हा फरिश्ता : यह इस संग्रह का सबसे अंतिम कहानी है । एक पालतू जानवर किस तरह से परिवार में अपनी जगह बना लेता है, इसका सुबोध भारतीय जी ने डाज़ी के माध्यम से बड़ा खूबसूरत और मार्मिक चित्रण किया है । हम लोगों में से बहुत से लोग इस अनुभव से गुजरे हैं और ऐसा लगता है कि जैसे हमारे ही परिवार की बात चल रही है । इस कहानी या यूं कहे कि रेखाचित्र को पढ़ने के बाद यूं लगने लगता है कि डाज़ी हमारे आसपास ही है ।

प्रस्तुत कहानी-संग्रह की कहानियाँ जीवन में धूमिल होती किसी न उम्मीद को तलाश करती हुई प्रतीत होती हैं । क्लाईंट और डाज़ी को छोडकर सभी कहानियाँ एक सुखांत पर जाकर ख़त्म होती हैं जो लेखक के सकारात्मक सोच का परिचायक है । काश, ऐसा आम जिंदगी में भी हो पाता ।

सुबोध भारतीय जी की भाषा शैली बिलकुल सरल है । मेरी नजर में, किसी लेखक का सरलता से अपनी बात कह देना और पाठक तक अपना दृष्टिकोण पहुंचा देना सबसे कठिन होता है । किसी भी कहानी में उन्होने अपनी विद्वता का प्रदर्शन नहीं किया है जो काबिले तारीफ है वरना तो साहित्य का एक पैमाना यह भी हो चला है जो रचना पढ़ने वाले के सिर पर जितना ऊपर से जाएगी वह उतनी ही श्रेष्ठ होगी । अपने पाठक के धरातल पर जाकर उससे संवाद करना सुबोध जी खूबी है । कुछ जगहों पर दोहराव है जिससे बचा जा सकता है ।

इस श्रेष्ठ साहित्यिक कृति के लिए सुबोध जी को हार्दिक बधाई । सर्वश्रेष्ट इस लिए नहीं कहा कि अभी तो आग़ाज़ हुआ है और उम्मीद है कि हम पाठक उनकी रचनाओ से अब लगातार रूबरू होते रहेंगे ।

 #यह समीक्षा तहक़ीक़ात पत्रिका के दूसरे अंक में प्रकाशित हुई है ।



हैशटैग-अर्बन स्टोरीज


 

 

 

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