Wednesday, February 16, 2022

तर्पण : शिवमूर्ति

उपन्यास : तर्पण

उपन्यासकार : शिवमूर्ति

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली ।

मूल्य : 150/-

पृष्ठ संख्या : 114

आवरण चित्र : डॉ लाल रत्नाकर 

तर्पण : शिवमूर्ति


 आवरण पृष्ठ से :

तर्पण भारतीय समाज में सहस्त्राब्दियों से शोषित, दलित और उत्पीड़ित समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है । इसमें एक तरफ कई कई हजार वर्षों के दुख अभाव और अत्याचार का सनातन यथार्थ है तो दूसरी तरफ दलित चेतना के स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति की वास्तविकता ।

इस नई वास्तविकता के मानदंड भी नए हैं, पैंतरे भी नए हैं और अवक्षेपण भी नए हैं।

तर्पण कथा :

मुख्य कथा वर्ण-संघर्ष-सवर्ण बनाम दलित की है जिसका आरंभ दो परिवारों- धरमू पंडित बनाम पियारे चमार के संघर्ष से होता है । गाँव के अधिसंख्यक दलित पियारे सहित सवर्णों के खेतों में मजदूरी करते रहे हैं और पिछले दिनों मजदूरी बढ़ाने का सफल आंदोलन कर चुके हैं। अतः वर्ग-संघर्ष मुख्य कथा की पृष्ठभूमि में है । उपन्यास के पात्रों के व्यवहार में इसकी सफलता- असफलता की प्रतिक्रिया भी झलकती है ।

पियारे की विवाहित बेटी रजपतिया घात लगाए बैठे धरमू पंडित के बेटे चंदर द्वारा मटर के खेत में पकड़ ली जाती है- आरोप मटर की चोरी का है- नीयत बदमाशी की है जिसके बारे में आगे चलकर पंडिताइन का कहना है कि यह नीयत वंशानुगत है और जिसके बारे में यह स्थापित है कि चंदरवा का चरित्तर तो अब तक दो तीन बच्चों की माँ बन चुकी गाँव की लड़कियाँ तब से बखानती आ रही हैं जब वह इन बातों का मतलब भी ठीक से समझने लायक नहीं हुई थी।पकड़ी गई रजपतिया के प्रतिकार से प्रथमतः चंदर का अहं आहत होता है नान्हों की छोकरियाँखबरदार बोलना कब से सीख गई ? फिर परेमा की माई, मिस्त्री बहू व रजपतिया की संयुक्त शक्ति से भयभीत हो भाग छूटता चंदर पुरूषोत्तम अग्रवाल की बिल्ली और कबूतरकविता की याद दिलाता है जिसमें कबूतर की खुली आँख की तेज चमक से बिल्ली घबरा जाती है, चकरा जाती है । 

यह मामूली सी और लगभग स्वीकार्य समझी जाने वाली घटना दलितों की अब तक की संचित पीड़ा को विस्फोटक क्रोध में बदल देती है । दलित सामाजिक कार्यकर्ता भाईजी की अगुवाई में दलित युवा पीढ़ी रजपतिया के साथ हुई छेड़छाड़ को बलात्कार की शिकायत में तब्दील कर थाने में दर्ज कराने पर आमादा है क्योंकि भाईजी के मुताबिक ‘366 बटा 511 दर्ज हुई तो इन्क्वायरी अफसर उसे गिराकर 354 पर ले आएगा अतः चंदर को सजा दिलाने के लिए 376 लगाना जरूरी है इसलिए स्ट्रेटेजी बनाना होगा, लिखाना होगा-रेप हुआ है।

पियारे की असहमति; जो कि असत्य भाषण के संभावित पाय जन्मी है और रजपतिया, रजपतिया की माँ-यानी स्त्री की राय जाने बगैर बलात्कार की शिकायत दर्ज होती है- इस संदर्भ में आगे चलकर हरिजन एक्ट का इस्तेमाल किया जाता है ।

धरमू पंडित के पास पैसा है, ऊँचे रसूख हैं, दलित उभार से आहत अहं है तो दलित समुदाय के पास चंदे का, दलित एम.एल.ए. का, रजपतिया से जबरन दिलवाए गए झूठे बयान का सहारा है । पंडित-पुत्र चंदर महाशय रिश्वत के बल पर पहली बार थाने से छूटकर घर आते हैं तो विजय-दर्प में कंधे पर बंदूक टांगकर चमरौटी के तीन चक्कर लगाते हैं ।

भाईजी की कोशिशों से चंदर की फिर गिरफ्तारी होती है तो उसके डेढ़ महीने के जेल-वास के उपलक्ष्य में चमरौटी में सूअर कटता है, दारू चलती है- झमाझम नाच होता है जिसके चलते रजपतिया के भाई मुन्ना पर हजार रूपये का कर्ज हो जाता है । पंडित पार्टी महँगा वकील खड़ा करती है तो दलित पार्टी भी पीछे नहीं । कुल मिलाकर दोनों तरफ नीति नहीं-सिर्फ रणनीति है ।

चूंकि बलात्कार की रिपोर्ट झूठी है और सी.ओ. ठाकुर हैं, चंदर की माता श्री पंडिताइन द्वारा प्रति पचास रू. खरीदी गई निजी हलवाहिन लवंगलता व उसकी बटन कौरह के झूठे बयान हैं; अतः अन्ततः चंदर बरी हो जाता है पर प्रतिशोध भावना से बरी नहीं है सो बंदूक से हवाई फायर करने, भाईजी को डराने के इरादे से निकलता है पर बदले में मुन्ना के हाथों नाक कटा बैठता है ।

इस घटना का न कोई गवाह है न कोई नामजद आरोपी, शक जरूर मुन्ना पर है । ऐसे में मुन्ना का पिता पियारे स्वयं को आरोपी के रूप में अपने वकील को से यह कहकर गिरफ्तार करवाता है कि यह सही है कि मैंने नहीं मारा पर मन ही मन न जाने कितनी बार मारा है । अब जब बिना मारे ही जसलेने का मौका मिल रहा है तो आप कहते हैं इंकार कर दूँ ?

मेरी बात:  

तर्पण मात्र 114 पेज का उपन्यास है लेकिन सदियों का दर्द अपने अंदर समेटे और आने वाली सदियों का डर अपने अंदर समेटे हुए। 

जहां एक तरफ राजपति, पियारे और विक्रम का व्यवस्था के प्रति मानसिक और शारीरिक विद्रोह है तो दूसरी तरफ धरमू पंडित, चंदर की सामाजिक श्रेष्ठता को बरकरार रखने की जद्दोजहद का भी बेबाकी से चित्रण है। 

इनके बीच में भाई जी जैसे चरित्र जो पुरानी व्वयस्था को उखाड़ कर एक नई व्यवस्था स्थापित करने को बेकरार हैं जिसमें खुद को प्रासंगिक साबित किया जा सके। 

शिव मूर्ति जी ने शोषित और शोषक के बदलते समीकरणों का तटस्थ और ईमानदारी से  चित्रण किया है ।

हालांकि तर्पणशिवमूर्ति का दूसरा ही उपन्यास है लेकिन इतना कम लिखकर भी उन्हें जबर्दस्त ख्याति मिली है जो किसी विरले लेखक के नसीब में होती है

तर्पण में नब्बे के दशक के उपरान्त ग्रामीण जनजीवन-स्थितियों के सहारे हमारे समाज के ज्वलंत सच को रेखांकित किया गया है। इस उपन्यास में सदियों से पोषित हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से जुड़ी मानसिकता के विरोधी स्वरों के तानों-बानों से पूरा औपन्यासिक ढ़ांचा खड़ा किया गया है।

शिवमूर्ति का तीसरा उपन्यास ‘‘आखीरी छलांग’’ किसान जवीन के त्रासदी को जिस मार्मिकता से उभारती है, वो पाठक को किसान जीवन के दर्द से सीधे लेजाकर जोड़ देती है। 

शिवमूर्ति का प्रत्येक उपन्यास अपने समय-समाज से संवाद करता हुआ अपने समकाल को रचता है तथा अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करता है। शिवमूर्ति का कथासाहित्य अपने औपन्यासिक ढ़ांचे में हमारे समय-समाज के परस्पर अंतर्विरोधी स्वरों को उसकी संश्लिष्टता में रखते हुए हमारे समय-समाज के करीब लाता है।

तर्पण अपने समय-समाज के संकटों-जातिवाद, धार्मिक, कट्टरतावाद, संप्रदायवाद, वर्चस्ववाद आदि का प्रत्याखान करता हुआ हमें यह सोचने को विवश करता है कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है। यही इन उपन्यासों की सार्थकता भी है ।

 

 


Monday, February 14, 2022

प्रेत लेखन : योगेश मित्तल

 
पुस्तक : प्रेत लेखन (हिन्दी पल्प फिक्शन में प्रेत लेखन का नंगा सच)
लेखक : योगेश मित्तल
प्रकाशक : नीलम जासूस कार्यालय, रोहिणी, दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 268
MRP : 275/-
Amazon link :  प्रेत लेखन

pret lekhan
प्रेत लेखन

 हिन्दी पल्प फिक्शन में प्रेत लेखन का नंगा सच या संक्षेप में प्रेत लेखन श्री योगेश मित्तल द्वारा लिखी गई अपने आप में एक अनूठी किताब है जिसे नीलम जासूस कार्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया है।
प्रेत लेखन का शीर्षक एक कौतूहल जगाता है कि किताब में आखिर मिलेगा क्या ? किसी प्रेत द्वारा किया लेखन ? जी नहीं, ये किताब घोस्ट राइटिंग से संबंध रखती हुई किताब है ।
आप समझते ही होंगे कि घोस्ट राइटिंग या प्रेत लेखन किसी स्थापित लेखक के नाम से या किसी नकली नाम के पीछे रहकर किया गया लेखन है जिसमे असली लेखक की पहचान पढ़ने वालों के सामने नहीं आ पाती है । ऐसे लेखक को घोस्ट रायटर या प्रेत लेखक कहते हैं ।
योगेश मित्तल जी ने अपनी ज़िंदगी के गुजरे दिनों को याद करते हुए, आत्मकथात्मक अंदाज में, 1963 के आसपास का समय अपनी पुस्तक में शुरू से लिया है और अपने लेखकीय जीवन की यादों को एक सूत्र में पिरोया है ।

योगेश मित्तल 


जैसे जैसे हम इस किताब को पढ़ते हैं तो हैरान होते चले जाते हैं कि प्रेत लेखन की सोच या लालच किस कदर उस वक्त के प्रकाशकों और लेखकों पर हावी हो गई थी कि हर कोई इसमें कूदना चाहता था ।
जहां तक मैं समझ पाया हूँ कि हिन्द पॉकेट बुक्स से कर्नल रंजीत के नाम से उपन्यास निकले और उनकी सफलता ने सभी प्रकाशकों को ध्यान खीचा ।  जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा और श्री वेद प्रकाश कम्बोज के नाम से नकली लेखन शायद उस वक्त उनकी प्रसिद्धि को दर्शाता है । लेकिन इस प्रेत लेखन का खामियाजा आखिरकार उन्हें भी भुगतना पड़ा ।
योगेश मित्तल जी का रुझान इस प्रेत लेखन में क्यों था या वो इसे कैसे स्वीकार कर पाये – इस बात का जवाब हमें उन्हीं के जुबानी मिलता है – “मैं खामोश रह गया तथा यही सोचा – सामाजिक और जासूसी उपन्यासों में अगर नाम नहीं छपता, न छपे। पैसे तो मिल रहें हैं । नाम के लिए कभी कुछ साहित्यिक लिखेंगे।
इस किताब की नीव या शुरुआत फ़ेसबुक पर राजभारती के फ़ैन पेज पर साझा किए गए संस्मरणों से हुई थी जो लोगों को बहुत पसंद आए थे । जिसे मैंने भी पढ़ा था । उसी वक्त इन संस्मरणों को एक किताब के रूप छापने की मांग शुरू हो गई थी जिसे आखिरकार नीलम जासूस कार्यालय ने साकार किया ।
पल्प फिक्शन के सुनहरी दौर में रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर बुक-स्टाल पर हमने कहीं न कहीं मनोज, सूरज, धीरज, रानु, राजवंश, कर्नल रंजीत या मेजर बलवंत के उपन्यास जरूर देखें होंगे । ये सिर्फ काल्पनिक नाम थे और इनके पीछे थे – मख़मूर जालंधरी, फारुख अर्गली, आरिफ़ म्हारवी, केवल कृशन कालिया, हादी हसन और योगेश मित्तल ।
पूरी किताब उस वक्त के रोचक किस्सों से भरी हुई है । जो लोग उस दौर से पाठक के तौर पर गुजरे हैं, उनके लिए उस दौर के लेखन जगत की बातों को जानना एक अनूठा अनुभव होगा, जिसके बारे में यहाँ वहाँ से बात उठती रहती थी । योगेश मित्तल जी ने लगभग पूरा सच पाठकों के सामने रखा है । उनकी याददाश्त का लोहा मानना पड़ेगा जिसके दम पर उन्होंने प्रत्येक दृश्य पाठकों के सामने साकार कर दिया है ।
पुस्तक की साज-सज्जा काबिले तारीफ है । आवरण पृष्ठ का डिजाइन नीलम जासूस कार्यालय का सबल पक्ष रहा है जिसमें पूरे नंबर दिये जा सकते हैं । पेपर क्वालिटी और बाइंडिंग उम्दा दर्जे की है जो पाठकों को आकर्षित करती है ।
पुस्तक की शुरुआत में लगभग पचास पेज में भूमिका/ प्रशस्ति लेखन है जिसे कम किया जा सकता था । यही पेज योगेश मित्तल जी को दिये जा सकते थे जिसमें वे अपनी यादों को थोड़ा और विस्तार दे सकते थे जिससे पढ़ने वालों को शायद ज्यादा लुत्फ आता । अंत में ऐसा लगता है जैसे किताब को जल्दी समेट दिया गया हो ।
इस सबके बावजूद प्रेत लेखन एक संग्रहणीय पुस्तक है जिसे लोकप्रिय साहित्य को चाहने वाला अपने पास जरूर रखना चाहेगा ।
इस पुस्तक के बाद योगेश मित्तल जी ने इसी पुस्तक में आगे भी गुफ्तगू जारी रखने का जिक्र किया है जिसमें कई और लेखकों के बारे में संस्मरण आने है । यह सब भविष्य के गर्भ में है लेकिन पाठकों को बेसब्री से इंतजार रहेगा और मुझे भी ।  
© Jitender Nath



      
 

Friday, February 4, 2022

मृत्युंजय - शिवाजी सावन्त (समीक्षा - डॉ वसुधा मिश्रा)

उपन्यास : मृत्युंजय
लेखक : शिवाजी सावन्त
समीक्षा : डॉ वसुधा मिश्रा

हाथ कांपते है ,दिल की धमक कुछ तेज सी होने लगती है जब कलम उठाने की कोशिश करती हूं,ऐसे महाशास्त्र के विषय में कुछ भी लिखने के लिए ...
   पर कोशिश तो करनी ही होगी क्योंकि ऐसे अधूरा रह जायेगा मेरा आभार प्रकट करना उस महान कलमकार को जिसने अपनी लेखनी से अमृत बिखेर दिया ,हम सभी की जिंदगी में ...
ये उपन्यास मूलतः मराठी भाषा में लिखा , शिवाजी सावंत ने..
14 वर्ष की कोमल  किशोर अवस्था में जब बालक खेलकूद में अपना समय व्यतीत करते हैं , उस वक्त उन्होंने कृष्ण का पात्र निभाते हुए एक नाटक खेला,पर जिया पूरी तरह से "कर्ण" के
पात्र को ,घर कर गया कर्ण का चरित्र उनके मन मस्तिष्क पर , इतनी गहरी नींव पड़ी उसकी कि उसी नींव पर एक विशाल ,महान इमारत खड़ी की उन्होंने जिसको आज तक कोई हिला नही पाया ...
पहले एक नाटक लिखने की योजना बनाई उन्होंने ,पर ऐसा लगा कि न्याय नहीं कर पायेंगे,इतने  विस्तृत व्यक्तित्व का ,चित्र नही खींच पाए वो पूरी तरह से .....
उन्हें महाभारत का ज्ञान था ही, साथ  ही दिनकर की " रश्मिरथी " और केदारनाथ मिश्र की " प्रभात " ने पूरा महाग्रंथ लिखने के लिए प्रेरित किया ...
1967 में मराठी में इसका प्रथम संस्करण निकला , लोगों में एक बिजली सी दौड़ गई ,एक लहर ऐसे उठी की मानो आकाश छू लेगी। 
शिवाजी सावंत ने कर्ण का चरित्र इतना ओजस्वी ,इतना औदार्यपूर्ण ,इतना महावीर , दीनरक्षक और दिव्य प्रस्तुत किया है जिसके सामने महाभारत के अन्य पात्र ऐसे प्रतीत होने लगे जैसे सूर्य अपनी चमक से सारे अन्य प्रकाश धूमिल होते नज़र आने लगते हैं ।
इस उपन्यास की भाषा शैली ,  पृष्ठभूमि पर इतनी सूक्ष्म पकड़, चारित्रिक संकल्पना इतनी सधी हुई जैसे कोई तीर  पारंगत धनुर्धर अपने  तूणीर से छोड़ता है और वो सीधे लक्ष्य पर लगता हैं ।
ऐसा महाकाव्य रचा गया कि जिसके जैसा मार्मिक और सत्याभिवक्ति करने वाला अन्य कुछ इसके सामने नही टिकता ।
इस उपन्यास में कर्ण,कुंती ,दुर्योधन , वृषाली( कर्ण की पत्नी ) ,शोण, और कृष्ण के आत्मकथ्यों के माध्यम से घटनाओं को वर्णित किया गया है ।
कर्ण की आत्मकथा जैसे शुरू होता है ये उपन्यास जहां कर्ण की हर संभव यह कोशिश है कि वह अपने जीवन के तरकश को  अच्छी  तरह खोल कर दिखा सके,जिसमे अनेक आकारों की विविध घटनाओं के बाण ठसाठस भरे हुए हैं...
वो अपने व्यक्तित्व के हर आयाम को सबके सामने ऐसे रख देना चाहता है, कोई छुपाव - दुराव नही हो जिसमें ..
उसके मन की व्यथा उससे कहती है कि "कर्ण! कहो ...अपनी जीवन - कथा ,ऐसे कि सब समझ सके कि तेरा जीवन चीथड़े के समान नहीं था,वरन वह तो गोटा लगा हुआ एक अतलसी राजवस्त्र था,परिस्थितियों के निर्दयी बाणों से उसके सहस्र चीथड़े हो गए थे,और जिसके हाथ में पड़े,उसने मनमाने ढंग से उनका प्रचार किया ...."
कथा की शुरुआत चंपानगरी से होती है जहां कर्ण का बचपन अपने पालक माता पिता ,राधा और अधिरथ के पुत्र के रूप में बीत रहा था ,उसका एक छोटा भाई भी था जिसका नाम शोण था,उपन्यास में कर्ण के बचपन का काफी विस्तार से वर्णन किया गया है ,उसके बचपन की हर छोटी बड़ी घटना को बड़े ही मार्मिक चित्रण से सजाया है ,पढ़ने पर हम उसको स्वयं अनुभव करते हैं कि कर्ण का बालपन  किन किन असमंजस से भरे प्रश्नों की अनबूझ पहेली जैसा रहा है , जिनका जवाब न उसके पास था न ही कोई ऐसा था जिससे वो अपने सवालों के उत्तर पा सके...
आगे उसका शास्त्र और शस्त्र विद्या सीखने के लिए हस्तिनापुर जाना ,वहां सभी विषयों में,विद्याओं में दक्ष, सर्वश्रेष्ठ होने के बावजूद भी उसकी जाति के कारण उसको उचित सम्मान और स्थान न मिलना बल्कि उपेक्षा,घृणा और अपमान से हर कदम उसका सामना होना ,
चाहे वो द्रोणाचार्य के द्वारा मिला हुआ धिक्कार हो या द्रौपदी के द्वारा अपने स्वयंवर में मिला हुआ तिरस्कार हो ,या माता कुंती द्वारा पैदा होते ही त्याग दिए जाने को असह्य पीड़ा हो ,या भीष्म पितामह द्वारा उसको कभी भी एक सम्मानित नागरिक तक न माने जाने का आत्मिक संताप हो .....
कर्ण का जीवन इन सभी दंशो के साथ भी ,अपने ऊर्जित ,गर्वित और पौरुष से भरे हुए मस्तक के साथ सदैव ऊंचे रहने में ही प्रयत्नशील रहा ..
जब भरी युद्धशाला में द्रोण के द्वारा अपमानित किए जाने पर ,दुर्योधन सामने आता है ,मैत्री भाव लेकर ( भले ही उसका वह प्रस्ताव ,स्वार्थ पूर्ति के लिए ही था) और कर्ण को "अंगराज" की उपाधि से अलंकृत कर सम्मान के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा देता है , उस उपकार का बदला कर्ण अपनी मृत्यु तक चुकाता है ,कहां होगा ऐसा साक्षात उदाहरण मैत्री का , कर्ण के जीवन के सिवा ....
अनेकों अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो आपकी आत्मा को झकझोर देते हैं,कचोटते है कर्ण के कष्ट हमें भी ,आखिर कर्ण के साथ ऐसा क्यों हुआ ????इतनी परीक्षा उसकी ,हर कदम पर ,हर बार जब वो जीत के एकदम निकट होता है ,उससे छीन लिया जाता है जीत का परचम और थमा दिया जाता है ,निकृष्ट जाति के होने का एक परिचय पत्र..........
कर्ण का हृदय सहमता नही ,डरता नहीं ,द्रवित होता है और चाहता है अपने हर प्रश्न का जवाब ...उठ खड़ा होता है वो हर आगे वाली चुनौती के लिए अपने पास सुरक्षित हर विराट शक्ति के साथ ,दोगुनी ,चार गुनी क्षमताओं को साथ लेकर ..
कर्ण के विशाल व्यक्तित्व का एक उदाहरण मिलता है जब श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध के निकट आने के समय राजकाज और शिष्टता की पूंजी साथ लेकर हस्तिनापुर जाते हैं और समझौते का प्रस्ताव रखते हैं,दुर्योधन उसको ठुकरा देता है और युद्ध की घोषणा हो जाती है, उस वक्त हस्तिनापुर से वापस जाते समय मात्र कर्ण ही ऐसा व्यक्ति होता है जिसका हाथ पकड़ कर कृष्ण अपने रथ में चढ़ा लेते हैं,उसको उसके जन्म का सम्पूर्ण रहस्य बताते हैं, उस चिरप्रतीक्षित सत्य को जानने के बाद भी ,उसका अपने वचन और स्नेहभाव दुर्योधन के लिए ही रखते हुए कौरवों का साथ देने के रहते कृष्ण का प्रस्ताव अस्वीकार करता है .....
उपन्यास ओत प्रोत है ऐसे हजारों, हृदय को प्रकंपित कर देने वाले प्रसंगों से ,उनको स्वयं पढ़कर उनकी अनुभूति करने का आनंद अवर्णनीय है ...
मेरी आंखों में आंसुओ की बूंदे लाने वाले प्रसंगों में से एक है - अर्घ्यदान के समय गंगातट पर "कर्ण - कुंती की भेंट ,इतना हृदयविदारक संस्मरण है वो ,शायद विश्व में माता - पुत्र के रिश्ते का इतना गहरा और बेमिसाल वर्णन कहीं और नही मिलेगा , अपने उस अस्तित्व के सत्य को जानने के लिए कर्ण को लगभग 75 साल घुटन,अपमान और घृणा झेलते हुए बिताने पड़े ,
वो प्रसंग आपका दिल जरूर द्रवित करेगा .....एक एक शब्द आत्मसात करने वाला है ।
कर्ण के परमदानी होने का परिचय देता हुआ अंश जहां वो इंद्र को अपने कवच और कुंडल सहर्ष उतार कर दे देता है , या परशुराम जी द्वारा शापित होकर ऐन वक्त पर ब्रह्मास्त्र का उपयोग न कर पाने का परम दुख सहन करके भी पथभ्रष्ट न होना ,अपने वचन पर टिके रहकर अपने सर्वस्व का बलिदान दे देना ,सिर्फ कर्ण का पराक्रम ही कर दिखा सकता था ....
सारा कुछ न लिख पाने की कुछ मेरी मजबूरी है ,एक तो इस महाकाव्य रूपी सागर को मैं अपनी लेखनी की गागर में भरने की सिर्फ एक कोशिश मात्र कर सकती हूं ,जो मैने की है ....दूसरा ये कि मैं चाहती हूं ....दिल से .. कि यहां सभी अच्छा पढ़ने वाले लोग इस महाग्रंथ को अपने जीवन में अवश्य ,अवश्य पढ़ें ,..कई बार पढ़ सके तो कई बार वरना एक बार तो अवश्य ही पढ़ें ...और स्वयं साहित्य सरिता में गोते लगाएं और साक्षी बने इस महान कलाकृति के .....
पढ़कर परिचित होइए एक अडिग, अशरण, अंगराज दिग्विजयी,दानवीर, राधेय,कौंतेय , सूर्यपुत्र,सही अर्थों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ पांडव ,कर्ण से ,जिसको एक सीमित क्षेत्र में बांधना अति दुरूह कार्य है।

"दुस्साहस था कि वह पहुंचा ,राजरंगशाला में ।
चमके जैसा कमल चमकता ,कनक किरणमाला में ।।"
कर्ण के सुवर्ण का वर्णन खुद महसूस कीजिए।
निवेदन है आप सबसे।।🙏🙏🙏

नाम - मृत्युंजय
लेखक - शिवाजी सावंत (मूलतः मराठी में)
अनुवाद - ओम शिवराज ( अनुपम अनुवाद - कोटिशः 
नमन )
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ 
ISBN- 9789326350617
मूल्य - 399रुपए 

https://dl.flipkart.com/s/iw3FSaNNNN

Saturday, December 25, 2021

Bhisham Sahni : hanush (हानूश)

 उपन्यास/नाटक : हानूश

लेखक : भीष्म साहनी

समीक्षक : हर्षित गुप्ता

भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त 1915 को रावलपिंडी (पाकिस्तान) में हुआ। वह आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। 1937 में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। विभाजन के बाद उन्होंने भारत आकर समाचारपत्रों में लिखने का काम किया। वे अंबाला, अमृतसर में अध्यापक रहने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्य के प्रोफेसर बने । मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में अनुवादक के काम में कार्यरत रहे। उन्हें 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1975 में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), 1980 में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, 1983 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा 1998 में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।

हानूश: भीष्म साहनी 


भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे हिन्दी गद्यकारों में अग्रिम पंक्ति के रचनाकार हैं। वे मूलतः कथाकार हैं लेकिन, “स्वाभाविक-यथार्थपूर्ण चरित्रों की जीवंत सृष्टि, क्षणों की सूक्ष्म पकड़, सहज नाटकीय प्रसंगों की अद्भुत समझ, गहन विडंबनापूर्ण स्थितियों की अचूक पहचान, रोचक एवं कुतूहलपूर्ण घटनाक्रम की कुशल योजना और तनावपूर्ण मनः स्थितियों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की तार्किक शक्ति जैसी नाट्य लेखन के लिए सभी प्रमुख विशेषताएँ भीष्म साहनी के कथा साहित्य में आरंभ से ही विद्यमान थीं।
भीष्म साहनी के सृजनात्मक वैविध्य को इस तथ्य के आलोक में और अधिक सटीक तरीके से समझा जा सकता है कि उनके लेखन की प्रमुख विधाओं- कहानी, उपन्यास और नाटक तीनों में उनके तेवर एकदम अलग हैं। कहानी में जहाँ वे सामाजिक व पारिवारिक मूल्यों को तरजीह देते हैं वहीं उनके उपन्यास विभाजन की त्रासदी के दस्तावेज़ हैं। नाटककार भीष्म साहनी कथा और उपन्यास से एकदम अलग हैं। इस क्षेत्र में वह बिल्कुल नई चेतना और सोच की बात करते हैं।
भीष्म साहनी ने कुल छह नाटकों की रचना की। हानूश (1977), कबिरा खड़ा बजार में (1981), माधवी (1984), मुआवज़े (1993), रंग दे बसंती चोला (1996), आलमगीर (1999)। भीष्म साहनी ने अपने एक साक्षात्कार में एक सवाल के जवाब में नाटक संबंधी अपनी रुचि के विषय में कहा है कि, “नाटक की दुनिया बड़ी आकर्षक और निराली है। किस तरह धीरे-धीरे नाटक रूप लेता है और रूप लेने पर कैसे एक नए संसार की सृष्टि हो जाती है। यह अनुभव बहुत ही सुखद और रोमांचकारी होता है। नाटक खेलनेवालों के सिर पर एक तरह का जुनून छाया रहता है, जिसका मुक़ाबला नहीं।
नाटक और रंगमंच के प्रति अपने रुझान का उल्लेख भीष्म जी ने अपनी आत्मकथा में कई स्थानों पर किया है। बचपन से ही वे नाटकों में अभिनय करते थे। “मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था जब स्कूल में खेले गए एक नाटक में पहली अदाकारी की। नाटक का नाम ‘श्रवण कुमार’ था और मैं श्रवण कुमार की भूमिका ही निभा रहा था।
रंगमंच के मायावी आकर्षण से बिंधे भीष्म साहनी एक अभिनेता, निर्देशक, व्यवस्थापक, अनुवादक, रूपांतरकार, दर्शक और थिएटर एक्टिविस्ट के नाते रंगमंच से कमोबेश हमेशा ही जुड़े रहे। इसके बावजूद यह भी सच है कि 1976 में अपना पहला मौलिक नाटक हानूश लिखने से पहले तक उनके रचनात्मक लेखन का केंद्र कहानी-उपन्यास ही रहा और उस क्षेत्र में उन्होने खूब ख्याति, प्रतिष्ठा और लोकप्रियता भी अर्जित की। परंतु जब नाट्य-लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हुए तो हानूश को लेकर बड़े भाई की प्रतिक्रिया और सुप्रसिद्ध नाट्य-निर्देशक इब्राहिम अलकाजी की उपेक्षा भी उन्हें हतोत्साहित नहीं कर सकी।
बलराज साहनी की उपेक्षा को बयान करते हुए भीष्म जी ने लिखा है कि, “हानूश नाटक पर मैं लंबे अरसे से काम कर रहा था। पहली बार जब नाटक की पांडुलिपि तैयार हुई तो उसे लेकर मुंबई पहुँचा, बलराजजी को दिखाने के लिए। उन्होंने पढ़ा और ढेरों ठंडा पानी मेरे सिर पर उँडेल दिया। ‘नाटक लिखना तुम्हारे बस का नहीं है।’ उन्होंने ये शब्द कहे तो नहीं, पर उनका अभिप्राय यही था। उनके चेहरे पर हमदर्दी का भाव यही कह रहा था। इब्राहिम अलकाजी ने भी इसकी पांडुलिपि दो महीने तक अपने पास रखी और फिर बिना पढ़े ही लौटा दी। हानूश पहले मंचित हुआ बाद में प्रकाशित हुआ। 1977 में राजेन्द्रनाथ के निर्देशन में दिल्ली में इसका मंचन हुआ।
हानूश का रचनाकाल भारतीय राजनीति का विवादास्पद काल था। कल्पना साहनी ने लिखा है कि, “हानूश का मंचन 1977 में हुआ था, जब इन्दिरा गांधी की प्रैस सेंसरशिप के हालातों में, यह नाटक एकदम मौजूं था। हालांकि खुद भीष्म जी आपातकाल और इस नाटक के विषय के साम्य को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने ‘आज के अतीत’ में लिखा है कि, “नाटक अभी खेला ही जा रहा था जब मुझे एक दिन प्रातः अमृता प्रीतम का टेलीफ़ोन आया। मुझे नाटक पर मुबारकबाद देते हुए बोलीं :
“तुमने एमर्जेंसी पर खूब चोट की है। मुबारक हो!”
अमृता जी की तरफ से मुबारक मिले, इससे तो गहरा संतोष हुआ पर उनका यह कहना कि एमर्जेंसी पर मैंने चोट की है, सुनकर मैं जरूर चौंका। उन्हें एमर्जेंसी की क्या सूझी? एमर्जेंसी तो मेरे ख्वाब-ख्याल में भी नहीं थी। मैं तो बरसों से अपनी ही एमर्जेंसी से जूझता रहा था। बेशक ज़माना एमर्जेंसी का ही था जब नाटक ने अंतिम रूप लिया। पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते, हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फनकारों-कलाकारों के लिए एमर्जेंसी ही बनी रहती है और वे अपनी निष्ठा और आस्था के लिए यातनाएं भोगते रहते हैं। यही उनकी नियति है।
स्पष्ट है कि 1975-76 की राजनीतिक गतिविधियों ने भीष्म जी को भीतर तक झकझोर डाला होगा तभी हानूश की रचना संभव हो सकी होगी। अन्यथा प्राग की जिस किंवदंती को इस नाटक का आधार बनाया गया है उसे तो भीष्म जी ने सोलह-सत्रह वर्ष पहले सुना था। कलाकार के अस्तित्व की रक्षा की चुनौती उनके सामने खड़ी रही होगी। “कोई भी कलाकार अपने समय के जीवंत प्रश्नों की उपेक्षा नहीं कर सकता। हानूश ने समय की चुनौती स्वीकार की और उसने समय को काँटों में कैद कर लिया। भीष्म साहनी ने समय की चुनौती स्वीकार की तो कलाकार की अस्मिता और उसके अस्तित्व पर एक जीवंत प्रश्नचिह्न अंकित कर दिया।
हानूश उनका पहला नाटक है लेकिन पहले थोड़ी चर्चा उनके अन्य नाटकों पर भी करते हैं। ‘कबिरा खड़ा बजार में’ (1981) में उन्होंने महान संत कबीर के जीवन के आधार पर मध्यकालीन भारत के समाज में विद्यमान विद्रूपता को अभिव्यक्त किया है। नाटक कबीर के काल, तत्कालीन समाज की धर्मांधता तथा तानाशाही और कबीर के बाह्याचार- विरोधी पक्ष पर प्रकाश डालता है।
उनके तीसरे नाटक ‘माधवी’ (1984) में महाभारत की कथा के एक अंश को आधार बनाया गया है। यह ययाति की पुत्री माधवी के जीवन की कथा है। इसमें दिखाया गया है कि वरदान कैसे अभिशाप बन सकता है। माधवी को वरदान मिला है कि उसका पुत्र चक्रवर्ती होगा और साथ ही यह भी कि विवाह और पुत्र होने के बाद वह पुनः कौमार्य धारण कर लेगी। अलग-अलग रनिवासों में रहकर माधवी ने कई पुत्रों को जन्म दिया और वह कई बार अपने यौवन को समर्पित करती है। उसके पिता ययाति दानवीर कहलाए। लेकिन माधवी को क्या मिला, स्पष्ट है कि माधवी की कथा के माध्यम से भीष्म साहनी ने स्त्री शोषण को स्वर दिया है।
उनका चौथा नाटक ‘मुआवजे’ (1993) उनके पहले तीनों नाटकों के विषय के धरातल पर एकदम भिन्न है। इस नाटक में भीष्म जी ने सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि को आधार बनाया है। दंगों के पीछे के सच को उघाड़कर रख दिया है। इस नाटक की भूमिका में वे लिखते हैं, “यह प्रहसन हमारी आज की विडंबनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर किया गया व्यंग्य है। नगर में सांप्रदायिक दंगे के भड़क उठने का डर है। इक्का-दुक्का छोटी-मोटी घटनाएँ घट भी चुकी हैं। इस तनावपूर्ण स्थिति का सामना किस प्रकार किया जाता है; हमारा प्रशासन, हमारे नागरिक, हमारा धनी वर्ग, हमारे सियासतदाँ किस तरह इसका सामना करते हैं, इसी विषय को लेकर नाटक का ताना-बाना बुना गया है।
अपने पाँचवे नाटक ‘रंग दे बसंती चोला’ में भीष्म जी ने जलियाँवाला बाग की घटना को आधार बनाकर उसके पात्रों के माध्यम से त्याग और देशभक्ति की अनुपम मिसाल स्थापित की है। उसकी प्रमुख पात्र रतनदेवी का पति हेमराज जब जलियाँवाला बाग में शहीद हो जाता है तो वह उसके खून से लथपथ शरीर को देखकर रोती नहीं बल्कि उसे खुशी- खुशी विदा करने की बात करती है।
उनका अंतिम नाटक आलमगीर (1999) में प्रकाशित हुआ। यह मुगल सम्राट औरंगजेब के जीवन पर आधारित है। इसमें मध्यकालीन भारत के तत्कालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई है।
हानूश लिखने की प्रेरणा के बारे में भीष्म साहनी ने एक स्थल पर बताया है कि, “हानूश नाटक की प्रेरणा मुझे चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग से मिली थी। यूरोप की यात्रा करते हुए एक बार मैं और शीला प्राग पहुँचे। उन दिनों निर्मल वर्मा वहाँ पर थे। होटल में सामान रखने के फ़ौरन बाद मैं उनकी खोज में निकल पड़ा। उस हॉस्टल में जा पहुँचा जिसका पता मेरे पास पहले से था। कमरा तो मैंने ढूँढ निकाला, पर पता चला निर्मल वहाँ पर नहीं हैं। संभवतः वह इटली की यात्रा पर गए हुए थे। बड़ी निराशा हुई। पर अचानक ही, दूसरे दिन वह पहुँच भी गए, और फिर उनके साथ सभी विरल स्मारकों, गिरजों, स्थलों को देखने का सुअवसर मिला, विशेषकर ‘गाथिक’ और ‘बरोक’ गिरजों को जिनकी निर्मल को गहरी जानकारी थी।
इसी घुमक्कड़ी में हमने हानूश की घड़ी देखी। यह मीनारी घड़ी प्राग की नगरपालिका पर सैकड़ों वर्ष पहले लगाई गई थी, चेकोस्लोवाकिया में बनाई जाने वाली पहली घड़ी मानी जाती थी और उसके साथ एक दंतकथा जुड़ी थी कि इसे बनाने वाला एक साधारण कुफ़लसाज़ था, कि उसे घड़ी बनाने में सत्रह साल लग गए और जब वह बनकर तैयार हुई तो राजा ने उसे अंधा करवा दिया ताकि वह ऐसी कोई दूसरी घड़ी न बना सके। घड़ी को दिखाते हुए निर्मल ने उससे जुड़ी यह कथा भी सुनाई। सुनते ही मुझे लगा कि इस कथा में बड़े नाटकीय तत्त्व हैं, कि यह नाटक का रूप ले सकती है।
हानूश की भूमिका में भीष्म साहनी ने लिखा है कि, ” बात मेरे मन में अटकी रह गई और समय बीत जाने पर भी यदा-कदा मन को विचलित करती रही। आखिर मैंने इसे नाटक का रूप दिया जो आज आपके हाथ में है। हानूश में लगभग बीस वर्ष के कथानक को तीन अंकों में समेटा गया है।
घटना समय लगभग पाँच सौ साल पुराना है। चेकोस्लोवाकिया के प्राग शहर में हानूश नाम का एक ताले बनाने वाला था। परिवार में पत्नी कात्या और एक बेटी थी। हानूश का भाई पादरी था। बाद में जेकब नाम के एक आश्रयहीन युवा को भी घर में आश्रय दिया, वह ताले बनाने में हानूश की मदद करता था। कात्या उन तालों को बाज़ार में बेचने जाती और किसी तरह घर का निर्वाह होता। हानूश ने जब कई लोगों से किसी घड़ी की चर्चा सुनी तो उसके मन में भी घड़ी बनाने का ख्याल पनपा। उसने नगर के एक गणित शिक्षक से घड़ी बनाने के लिए आवश्यक गणित सीखा। लुहार से आवश्यक औज़ार बनवाए। अब उसे काम शुरू करने के लिए धन की आवश्यकता थी। धन जुटाने में उसके पादरी भाई ने चर्च से अनुदान दिला दिया। इस प्रकार घड़ी बनने का कार्य शुरू हुआ। क्योंकि अब हानूश घड़ी बनाने में व्यस्त था इसलिए ताले बनाने का काम ठप्प पड़ गया और घर पर विपन्नता हावी हो गई। चर्च से मिले अनुदान से पूरा नहीं पड़ता था। जेकब की मदद से ताले बनाने का काम पुनः शुरू हुआ और इससे परिवार को थोड़ी राहत मिली। जेकब के आ जाने से हानूश को भी थोड़ी सहायता मिली। वह उसे समय मिलने पर घड़ी का तंत्र समझाता।
पिछले पंद्रह-सोलह साल से घड़ी बनाने के काम में लगे, लगभग पस्त हो चुके हानूश को जेकब के आ जाने से हिम्मत मिली और वह नए जोश के साथ पुनः अपने काम में जुट गया। सत्रह साल के लंबे अंतराल के बाद जब घड़ी बनने ही वाली थी तब फिर से धन की कमी आड़े आ गई। कुछ शुभचिंतकों की मदद से व्यवसायियों ने इस शर्त पर आर्थिक सहायता दी कि घड़ी के बन जाने पर उनके इच्छित स्थान पर घड़ी की स्थापना की जाएगी। हानूश अब अपनी योजना को सफल होते देख रहा था। पिछले सत्रह सालों में न जाने कितनी बार उसने इस निश्चय को निराश होकर छोड़- सा दिया था। उसमें इस आर्थिक सहायता से फिर से आशा का संचार हुआ और वह घड़ी को पूर्ण करने के लिए जी-जान से जुट गया।
एक दिन तमाम अवरोधों से उबरकर हानूश घड़ी बनाने में सफल हुआ। उसका वर्षों का स्वप्न साकार हुआ। अपनी इस सफलता के लिए वह अपने पादरी भाई (जिसने उसे आरंभिक आर्थिक सहायता दिलाई), अपने परिवार (जिसने उसे घोर अभावों में भी इस महान कलाकृति को गढ़ने का अवसर दिया) के प्रति कृतज्ञ था। साथ-ही-साथ वह उन व्यापारियों का भी आभारी था जिन्होंने अंतिम समय में आर्थिक सहायता देकर उसके सपने को पूर्ण किया। लेकिन व्यापारियों की सहायता निःस्वार्थ नहीं थी। वे घड़ी का महत्त्व समझते थे। वे बादशाह पर अपना प्रभाव पुनः स्थापित करना चाहते थे। बादशाह चर्च से अधिक प्रभावित था। साथ ही, व्यापारी बाज़ार की रौनक पुनः लौटाना चाहते थे। इसलिए व्यापारियों ने घड़ी को शहर के एक व्यस्त चौराहे की मीनार पर लगाने का निश्चय किया और बादशाह से घड़ी का उद्घाटन करवाने की योजना बनाई। इस प्रकार वे एक तीर से कई लक्ष्य बेधना चाहते थे। एक, घड़ी चर्च में नहीं लगी इसलिए चर्च का प्रभाव कम हुआ। दो, घड़ी को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आएँगे इससे बाज़ार की रौनक लौटेगी। तीन, बादशाह हानूश से प्रसन्न होकर उसे पुरस्कृत करेंगे और उसकी सलाह पर दरबार में व्यापारियों को पद-प्रतिष्ठा मिलेगी। सब कुछ व्यापारियों की योजनानुसार ही होता है। हाँ, केवल हानूश संबंधी उनका अनुमान सही नहीं बैठता। बादशाह ने घड़ी का उद्घाटन किया। देश-विदेश एवं शहर की समस्त जनता उस घड़ी को देखने के लिए उमड़ पड़ी।
हर तरफ हानूश की चर्चा थी। बादशाह ने हानूश को सम्मानित करने की घोषणा की। उसे दरबारी का सम्मानित पद और पुरस्कार के रूप में वृत्ति प्रदान की गई। हानूश इस प्रतिष्ठा से मन-ही-मन गदगद हो उठा। लेकिन साथ ही बादशाह ने हानूश की आँखे निकालने का हुक्म भी दिया। उसके आदेश पर हानूश की आँखे निकाल ली गई। उसके जीवन में अंधेरा छा गया। अंधेपन के कारण वह विक्षिप्त-सा हो गया। वह अपने अंधेपन का कारण उस घड़ी को मानता और प्रतिशोध की आग में उसे नष्ट करने की बात सोचता। जेकब घड़ी का भेद अपने भीतर छुपाए प्राग से चुपचाप भाग गया। घोर निराशा के क्षणों में हानूश ने अपने आप को ख़त्म करने के बारे में भी सोचा। घड़ी के खराब हो जाने पर हानूश को उसे ठीक करने के लिए जाना पड़ा। उसके सामने उसे नष्ट करने का अवसर था, लेकिन लेखक ने यहाँ पर यह स्पष्ट किया है कि कोई भी कलाकार कितनी ही विकट परिस्थिति में क्यों न हो वह अपनी कलाकृति को नष्ट नहीं कर सकता।
घड़ी के पास पहुँचकर हानूश के हृदय में उसके प्रति वात्सल्य का भाव जागृत हो उठता है। इसलिए हानूश भी घड़ी को ठीक करके वापस लौट आया। मानसिक अंतर्द्वंद्व से उबरकर वह एक महान चरित्र के रूप में हमारे सामने आता है। एक महान कलाकार का चरित्र, जो अपनी कला से बेपनाह प्यार करता है और उसको सुरक्षित बनाए रखने के लिए बड़ी-से-बड़ी कुर्बानी दे सकता है। अपने एक साक्षात्कार में भीष्म जी हानूश के विषय में कहते हैं, “हानूश लिखते समय महसूस हुआ कि कहानी में कोई पात्र धुँधला रह सकता है, लेकिन नाटक में नहीं रह सकता। उसमें प्रत्येक पात्र का अपना स्पष्ट व्यक्तित्व होना जरूरी है। दूसरे कथानक भले ही काल्पनिक हो, उसका क्रमिक विकास स्वाभाविक और विश्वसनीय होना जरूरी है।
‘मैं अपनी नज़र में’ शीर्षक आत्मकथ्य में अपने कला विषयक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए भीष्म साहनी का कहना है, “कला के क्षेत्र में भी उसे (भीष्म जी को) वे कृत्तियाँ अभिभूत कर लेती हैं, जहाँ कलाकार मानवीय सीमाओं को लाँघ जाता है, जहाँ उसकी कला मानवीय स्तर से उठकर किसी दैवी स्तर को छूने लगती है, जब उसका संवेदन मानवेतर स्तर पर किसी भाव को शब्दों अथवा रंगों में बांध लेता है, जहाँ इसे (भीष्म जी को) जैसे बिजली छू जाती है और यह मंत्रमुग्ध-सा खड़ा-का-खड़ा रह जाता है। शायद कलाकार का संघर्ष मानवीय सीमाओं को लाँघना ही है।
हानूश उन तमाम मानवीय सीमाओं को लाँघकर ही महान कलाकार बन सकता था। भीष्म साहनी ने उसके चरित्र को कुछ इस तरह से गढ़ा है कि हानूश की कला आत्मनिष्ठ न रहकर वस्तुनिष्ठ यथार्थ में परिणत हो जाती है। भीष्म साहनी ने ‘संघर्ष, परिवर्तन और लेखकीय मानसिकता’ लेख में कला और कलाकार के संबंध पर विचार करते हुए लिखा है, “कला सचमुच वह प्रक्रिया है जिसमें लिखने वाले के निजी उद्वेग, मूर्तरूप लेते हुए, धीरे-धीरे आत्मनिष्ठ न रहकर, वस्तुनिष्ठ होते चले जाते हैं।
अंग्रेज़ी के महान नाटककार विलियम शेक्सपीयर ने अपने प्रसिद्ध नाटक “हैमलेट” में नाटक का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है, “इस बात का विशेष ध्यान रहे कि प्रकृति की सीमा का उल्लंघन कहीं पर भी न हो। क्योंकि किसी प्रकार की अति नाटक के उद्देश्य से दूर हो जाना है, जिसका लक्ष्य पहले भी यही था और अब भी यही है – उसके दर्पण में प्रकृति को प्रतिबिंबित करना – युग को उसका स्वरूप दिखाना, और अवगुण को उसका खाका, और युग और काल को उसका नक्शा और उसका प्रभाव। उसकी अतिव्याप्ति अथवा अपर्याप्ति पर गँवार भले ही हँसे, पर समझदार आँसू बहाता है।” यानी अपने युग की स्वाभाविक अभिव्यक्ति शेक्सपीयर की दृष्टि में नाटक का प्रमुख उद्देश्य है और हानूश इस कसौटी पर एकदम खरा उतरता है।
“अपनी कला के बल पर सत्ता को चुनौती देते एक मामूली कुफ़लसाज़ हानूश का आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, निर्भीक योद्धा और भविष्यवेत्ता जैसा तेवर सचमुच अविस्मरणीय है। अपने शिष्य जेकब को भगाने और खुद बादशाह सलामत के ख़िलाफवर्जी करने के जुर्म में स्वयं को आश्वस्त भाव से समर्पित करते हुए हानूश कहता है कि -“महाराज का हुक्म सिर-आँखों पर। मैं हाज़िर हूँ। घड़ी बन सकती है, घड़ी बंद भी हो सकती है। घड़ी बनाने वाला अंधा भी हो सकता है। लेकिन यह बात बड़ी नहीं है। जेकब चला गया ताकि घड़ी का भेद ज़िंदा रह सके, और यही सबसे बड़ी बात है।”हानूश को अपनी चिंता नहीं है, बल्कि अपनी कला को बचाए रखने की चिंता है। उसके लिए उसकी कृति उसके जीवन से भी अधिक मूल्यवान है।
भीष्म साहनी का इस नाटक के विषय में स्वयं का मत है कि, “यह नाटक ऐतिहासिक नहीं है, न ही इसका अभिप्राय घड़ियों के आविष्कार की कहानी कहना है। कथानक के एक-दो तथ्यों को छोड़कर, लगभग सभी कुछ ही काल्पनिक है। नाटक एक मानवीय स्थिति को मध्ययुगीन परिप्रेक्ष्य में दिखाने का प्रयास है।” ज्योतिष जोशी के अनुसार, “इस नाटक के बहाने भीष्म साहनी ने एक मानवीय मूल्यजनित कथा को मध्ययुगीन संदर्भ में दिखाया है और बताया है कि दुनिया जिस चीज़ पर रीझती है उसके निर्माता किस-किस कारुण उसके निर्माता किस-किस कारुणिक त्रासदी के शिकार होते रहे हैं। अपने यथार्थवादी ढांचे में यह नाटक हानूश जैसे चरित्र की सृष्टि के कारण महत्त्वपूर्ण है, जिसमें जय-पराजय, आशा-निराशा और क्रूर नियति के प्रति गहरा आक्रोश है।”
प्रसिद्ध नाट्यकर्मी देवेंद्र राज अंकुर के अनुसार, “इन नाटकों का ताना-बाना भीष्म जी ने लोककथा, इतिहास और समसामयिक यथार्थ से सामग्री लेकर बुना लेकिन हानूश उनका पहला नाटक ही नहीं ‘आषाढ़ का एक दिन’ के बाद हिंदी रंगमंच का सबसे महत्त्वपूर्ण नाटक है।”
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भीष्म साहनी के पास जीवन को देखने की व्यापक दृष्टि है। मानवीयता उनके नाटकों की आधारभूमि है। व्यक्ति एवं समाज के जटिल संबंधों को सहजता से जीवंत बना देना उनकी विशेषता है। कला और सत्ता के विरोधाभासी चरित्रों की जितनी सशक्त अभिव्यक्ति उनके नाटकों (विशेष रूप से हानूश) में हुई है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। विषय चाहे ऐतिहासिक हो या काल्पनिक वे समकालीन समस्याओं एवं विसंगतियों को गहरी सूझबूझ के साथ प्रदर्शित करते हैं। नाटककार के रूप में हिंदी साहित्य में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
BHEESHM SAAHNI


Janpriya Lekhak Om Parkash Sharma: Ruk Jao Nisha

 

रुक जाओ निशा : एक पाठक की प्रतिक्रिया

उपन्यास : रुक जाओ निशा

लेखक : जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा

उपन्यास विधा : सामाजिक

प्रकाशक : नीलम जासूस कार्यालय, रोहिणी, सेक्टर-8, नई दिल्ली

पृष्ठ : 212

MRP: 225/-

जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा 

25 दिसंबर, 1924 को जन्में श्री ओम प्रकाश शर्मा जी उपन्यास जगत में जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा के नाम से जाने जाते हैं । उन्हें अपने समय में जो प्रसिद्धि मिली, वह उनके द्वारा रचे गए विराट साहित्य का ही परिणाम थी और वह आज भी यथावत है । तथाकथित साहित्य मनीषियों द्वारा उनको लुगदी साहित्य या आज के लोकप्रिय साहित्य की परिधि में बांध देने का प्रयास उनके द्वारा रचे गए कथा संसार के परिप्रेक्ष्य में कहीं से भी न्यायोचित या तर्कसंगत नहीं हैं । उनके द्वारा रचित चार सौ से अधिक उपन्यासों का विविध संसार उनकी गौरवशाली साहित्य यात्रा की गवाही देता है ।

आज के परिवेश में उपन्यास पढ़ने और पढ़ाने की परंपरा अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए, मोबाइल और इंटरनेट के माध्यम से सर्वसुलभ हो चुके मायाजाल से, निर्णायक संघर्ष के दौर में पहुँच चुकी है । इस दौर में सर्वश्री ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कम्बोज, गुरुदत्त, रोशन लाल सुरीरवाला, कुमार कश्यप जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों के अनुपलब्ध हो चुके उपन्यासों को पुनःप्रकाशित करने का बीड़ा नीलम जासूस कार्यालय ने उठाया है । ओमप्रकाश शर्मा जी के अनुपलब्ध उपन्यास नीलम जासूस कार्यालय के प्रयासों से पाठकों को उपलब्ध होने लगे हैं जिससे पाठकों की नई पीढ़ी उनके रचनाकर्म से भली-भांति परिचित हो सके । इसी कारण मैं भी उनके उपन्यासों के संसर्ग का लाभ उठा रहा हूँ ।

लोकप्रिय साहित्य में श्री ओम प्रकाश शर्मा जी ने कुछ ऐसे किरदारों की रचना की है जो पाठकों में बहुत लोकप्रिय रहे जैसे जगत, गोपली, चक्रम, बंदूक सिंह इत्यादि । हालांकि उनके अधिकतर उपन्यास जासूसी क्षेत्र में  रहस्य और रोमांच का मनमोहक  जाल बुनते हैं जिसमें पाठक एक अलग ही दुनिया में पहुँच जाते हैं लेकिन ओम प्रकाश शर्मा जी के ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास भी उसी ठोस धरातल पर खड़े नजर आते हैं जिसकी बुनियाद आचार्यचतुरसेन शास्त्री, शरत चंदर या बंकिम चंदर के उपन्यासों द्वारा रखी गई थी । मेरा ऐसा कहना कुछ उपन्यास प्रेमियों को अतिशयोक्ति पूर्ण लग सकता है परंतु जब हम प्रिया, धड़कनें, भाभी, एक रात, पी कहाँ और रुक जाओ निशा को पढ़ते हैं तो हमें पाठक के रूप में उनके सामाजिक सरोकारों से साक्षात्कार करवाते उपन्यासों के विविध कथा-संसार के दर्शन होते हैं ।

उनके सामाजिक उपन्यासों में तत्कालीन सामाजिक परिवेश का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है । रुक जाओ निशा को जब मैं पढ़ रहा था तो मैं यकीन ही नहीं कर सका कि मैं शरत चंदर जी को पढ़ रहा हूँ या ओम प्रकाश शर्मा जी को । रुक जाओ निशा का घटनाक्रम सत्तर-अस्सी के दशक में घटित होता है जिसकी पृष्ठभूमि में बंगाली परिवेश के सामाजिक सरोकारों को दर्शाया गया है ।


रुक जाओ निशा 

रुक जाओ निशा की कहानी निशा नाम की युवती के इर्दगिर्द घूमती है, जो बीए पास है और उसके माता- पिता मोहनकान्त भादुड़ी और रजनी का देहांत हो चुका है । उसके बड़े भाई निशिकांत पर उसकी परवरिश का जिम्मा है । निशा की मुलाकात अमित सान्याल से होती है जिसकी परिणति उनके विवाह में होती है । दुर्भाग्य से अमित एक जानलेवा बीमारी का शिकार होकर कालकवलित हो जाता है और निशा का जीवन एक अंधकार से भर जाता है ।

अमित की कंपनी का मैनेजर प्रथमेश सावंत एक प्रगतिशील सोच का व्यक्ति है जो निशा को अमित की जगह नौकरी देना चाहता है । इस प्रकरण में ओम प्रकाश शर्मा जी ने संस्कृति के नाम पर फैली रूढ़िवादिता और लालच पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया है जब पंचानन घोष अनिल से सवाल करते है ... “क्या कहते हो अनिल ! तुम्हारा चलन क्या संसार से अलग है ? क्या बेचारी बहू की जिंदगी खराब करोगे।” इस प्रश्न के उत्तर में अनिल कहता है, “काका, जाति नियम भी तो होता है माँ पंद्रह साल से काशी में है । क्या गाँव की और विधवायें भी काशी गई है ?”

ससुराल से परित्यक्त होकर, संस्कृति की आड़ में और संस्कारों के नाम पर अमित के परिवार से उसे काशीवास पर भेज दिया जाता है । अमित का मित्र परमानंद चटर्जी भी उसी ट्रेन में कलकत्ता से वाराणसी जा रहा होता है जिसमें निशा को तीन सौ रुपए देकर सवार करवाया जाता है । परम निराश्रय निशा को अपने घर लेकर जाता है जहां उसकी विधवा माँ सुखदा निशा को अपनी शरण में ले लेती है ।

रुक जाओ निशा में इसके बाद वाराणसी में उस समय फैली सामाजिक कुरीतियों पर विस्तार से चिंतन और मनन किया गया है । सुखदा और परम जहां प्रगतिशील सोच का प्रतिनिधित्व करते है वही ढोंगी आनंद स्वामी और कालीपद चटर्जी रूढ़िवादिता के पक्षधर हैं । सीआईडी इंस्पेक्टर के रूप में लटकन महाराज निशा की जिंदगी में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करते है । लेडी सब-इंस्पेक्टर प्रभा के सहयोग से लटकन महाराज, काशीवास की जिद पर अड़ी निशा को, वाराणसी के  घाटों पर फैले व्यभिचार से अवगत करवाते हैं ।

ओम प्रकाश शर्मा जी ने जहां पर नायिका के रूप में अपनी जिंदगी से विमुख हो चुकी निशा का पात्र गढ़ा है जो मानसिक रूप से सामाजिक रूढ़ियों के प्रति आत्मसमर्पण कर चुकी है, वहीं सुखदा, प्रभा मिश्रा, प्रिया, सुचित्रा, अर्चना श्रीवास्तव के रूप में ऐसे किरदार गढ़ें हैं जिनके जीवन में हुई उथल-पुथल सी निशा को जीवन के विविध पहलुओं को समझने में मदद मिलती है ।

रुक जाओ निशा में ओम प्रकाश शर्मा जी ने विधवा पुनर्विवाह के लिए धर्म और आस्था में जारी कशमकश का बड़ा संतुलित विवेचन किया है । इस उपन्यास में अपनी सुविधा और उपभोग के लिए धार्मिक मान्यताओं और रूढ़िवादी विचारधारा के उपयोग और आमजन को उसपर चलने की बाध्यताओं का पुरजोर विरोध किया गया है । उपन्यास के अंत में निशा अपने जीवन से अंधकार का खात्मा कर एक नए रास्ते पर चलने का निर्णय लेती है या नहीं, यही प्रश्न परम के लिए एक यक्षप्रश्न के रूप में उपस्थित होता है जिसका उत्तर उसे तब मिलता है जब वह नायिका को कहता है रुक जाओ निशा ...

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 समीक्षक : जितेंद्र नाथ

प्रकाशित रचनाएँ: राख़ (उपन्यास), पैसा ये पैसा (अनुवाद), खाली हाथ (अनुवाद), मौन किनारे एवं आईना (कविता संग्रह)            

    नोट : यह समीक्षा नीलम जासूस कार्यालय द्वारा प्रकाशित तहक़ीक़ात पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है 

 

Tumhara Namvar : Namvar Singh

पुस्तक: तुम्हारा नामवर लेखक: नामवर सिंह संपादन: आशीष त्रिपाठी प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली आचार्य राम चन्द्र शुक्ल, राम विलास शर्मा, म...